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भूमिका
४-पाज़ मेरे ५६ साल पूरे हो चुके हैं । फिर भी उसकी कठिनता का अनुभव तो होता ही है। यह प्रसि-धारा व्रत है-इस बात को दिन-दिन अधिकाधिक समझ रहा हूँ। निरन्तर जाग्रत रहने की आवश्यकता देख रहा हूँ।
। ब्रह्मचर्य का पालन करना हो तो स्वादेन्द्रिय-जीभ' को वश में करना ही होगा।..."हमारी खुराक थोड़ी, सादी और बिना मिर्च मसाले की होनी चाहिए। ब्रह्मचर्य का प्राहार वनपक्व फल है। दुग्धाहार से यह कष्ट-साध्य हो जाता है। 1. बाह्य उपचारों में जैसे पाहार के प्रकार और परिमाण की मर्यादा आवश्यक है, वैसे ही उपवास को भी समझना जाहिए। इन्द्रियाँ इतनी बलवान हैं कि उन पर चारों और से, ऊपर और नीचे से, दशों दिशाओं से घेरा डाला जाय, तभी काबू में रहती हैं । पाहार के विना वे काम नहीं कर सकतीं। उपवास से इन्द्रियों को काबू में लाने में मदद मिलती है। उपवास का सच्चा उपयोग वहीं है, जहाँ मन भी देहदमन में साथ देता है। मन में विषय-भोग के प्रति विरक्ति हो जानी चाहिए । विषय-वासना की जड़ें तो मन में ही होती हैं । उपवास के विना विषयासक्ति का जड़ मूल से जाना संभव नहीं। अत: उपवास ब्रह्मचर्य-पालन का अनिवार्य अङ्ग है। है. संयमी और स्वच्छंद, त्यागी और भोगी के जीवन में भेद होना ही चाहिए। दोनों का भेद स्पष्ट दिखाई देना चाहिए। अाँख का उपयोग दोनों करते हैं। पर ब्रह्मचारी देव-दर्शन करता है। भोगी नाटक सिनेमा में लीन रहता है। कान से दोनों काम लेते हैं। पर एक भगवद् भजन सुनता है, दूसरे को विलासी गाने सुनने में आनन्द पाता है। जागरण दोनों करते हैं। पर एक जाग्रत अवस्था में हृदय-मन्दिर में विराजनेवाले राम को भजता है, दूसरे को नाच-रंग की धून में सोने का खयाल ही नहीं रहता। खाते दोनों हैं। पर एक शरीररूपी तीर्थ क्षेत्र की रक्षार्थ देह को भोजनरूपी भाड़ा देता है, दूसरा जबान के मजे की खातिर देह में बहुत सी चीजों को ढूंसकर उसे दुगंधमय बना देता है। यों दोनों के प्राचार-विचार में भेद रहा ही करता है और यह अंतर दिन-दिन बढ़ता जाता है, घटता नहीं।
या ब्रह्मचर्य के मानी है, मन-वचन-काय से सम्पूर्ण इन्द्रियों का संयम । इस संयम के लिए ऊपर बताये हुए त्यागों की आवश्यकता है, यह मुझे आज भी दिखाई दे रहा है।
प्रयत्नशील ब्रह्मचारी तो अपनी कमियों को हर वक्त देखता रहेगा। अपने मन के कोने में छिपे हुए विकारों को पहचान लेगा और उन्हें निकाल बाहर करने की कोशिश सदा करता रहेगा।
जब तक विचारों पर यह काबू न मिल जाय कि अपनी इच्छा के बिना एक भी विचार मन में न आये, तब तक ब्रह्मचर्य सम्पूर्ण नहीं। उन्हें वश में करने का मानी है, मन को वश में करना।
____ जो लोग ईश्वर साक्षात्कार के उद्देश्य से, जिस ब्रह्मचर्य की व्याख्या मैंने ऊपर की है, वैसे ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहते हैं, वे अपने प्रयत्न के साथ-साथ ईश्वर पर श्रद्धा रखनेवाले होंगे तो उनके निराश होने का कोई कारण नहीं।
.. विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।
म पर रसवज रसोऽप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते ॥ । अत: रामनाम और रामकृपा, यही आत्मार्थी का अन्तिम साधन है, इस सत्य का साक्षात्कार मैंने हिन्दुस्तान आने पर किया। आत्मकथा ख० ३ अ०
५-विषय-मात्र का निरोध ही ब्रह्मचर्य है। निस्संदेह, जो अन्य इन्द्रियों को जहां-तहां भटकने देकर एक ही इन्द्रिय को रोकने का प्रयत्न करता है, वह निष्फल प्रयत्न करता है। कान से विकारी बातें सुनना, आंख से विकार उत्पन्न करनेवाली वस्तु देखना, जीभ से विकारोत्तेजक वस्तु का स्वाद लेना, हाथ से विकारों को उभारनेवाली चीज को छूना और फिर भी जननेंद्रिय को रोकने का इरादा रखना तो आग में हाथ डालकर जलने से बचने के प्रयत्न के समान है। इसलिए जननेंद्रिय को रोकने का निश्चय करनेवाले के लिए इंद्रिय-मात्र का, उनके विकारों से रोकने का निश्चय होना ही चाहिए । (५.८-३०)
६-कुछ लोग ऐसा मानते हैं कि अपनी या परायी स्त्री के लिए विकारवश होने में, उन्हें विकारी बनकर छूने में, ब्रह्मचर्य का भंग नहीं
१-निराहार रहनेवाले के विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, पर रस बना रहता है। ईश्वर के दर्शन से वह भी चला जाता है। गीता २:५६ २-ब्रह्मचर्य (पहला भाग): पृ०७
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