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शील की नव बाद
१०६ बिलकुल नहीं मानता कि मेरे दिल में ईश्वर ने कोई विशेष प्रकार की पवित्रता रख दी है और उसकी वजह से मैं बच गया हूं। मी साधारण पुरुष की तरह ही विकार भरे हैं. और उनके साथ मझे हमेशा झगड़ा जारी ही रखना पड़ता है।
"फिर भी, हम जिन्हें अनैतिक या अपवित्र सम्बन्ध मानते हैं, वैसे सम्बन्धों से मैं और जहाँ तक जानता हूं, मेरे परिवार के बाद आज तक बचे हुए हैं । ईश्वर की कृपा के अलावा में एक ही कारण मानता हूं। और वह है सदाचार के स्थूल नियमों का पालन ।
मात्रा स्वस्रा दुहिता वा विजने तु वयःस्थया ।
अनापदि न तैः स्थेयं..." "जवान मां, बहन या लड़की के साथ भी आपत्काल के बिना एकान्त में नहीं रहना चाहिए-शिक्षापत्री का यह सूत्र हमें बचपन रटाया गया था। और मेरे पिताजी तथा भाइयों के जीवन में जिसका पालन करने और कराने का प्राग्रह में बचपन से देखता रहता था।
__ "स्त्री-पुरुष आपस में आजादी से हिले-मिलें, एक दूसरे के साथ अकेले घूमें-फिरें, एकान्त में भी बैठे और फिर भी उनमें विकार हो या वे नाजुक स्थिति में न फंसे, तो उसे मैं केवल ईश्वरीय चमत्कार ही समझूगा। ऐसे चमत्कार कदम-कदम पर नहीं हो सकते। सैकड़ों बरसों में कोई एक स्त्री या पुरुष भले ही ऐसा पैदा हो। लेकिन मैं हर किसी के बारे में तुरन्त ऐसी श्रद्धा नहीं कर लेता; और ऐसा दावा करने वाले हर किसी के शब्दों पर विश्वास भी नहीं करता। कोई मनुष्य बड़ा ब्रह्मनिष्ठ और योगीराज माना जाता हो और मुझसे कोई यह सलाह पूछे कि उसके निर्विकारी होने के दावे पर विश्वास किया जाय या नहीं, तो मैं पूछनेवाले से यही कहूंगा कि विश्वास न करने से उसकी या
आपकी कोई हानि न होगी। ..... "इस विषय में स्त्री के बनिस्वत पुरुष की स्थिति को ज्यादा संभालने की जरूरत होती है । कोई पुरुष ५० वर्ष तक विकारों से बचा रखा हो, तो भी यह नहीं कहा जा सकता कि अब वह सुरक्षित हो चुका है। और यह भी नहीं कहा जा सकता कि ७० वें वर्ष में भी विकारों का शिकार होने का भय उसे नहीं रहेगा । इसलिए अगर कोई यह कहे कि अब मुझे पर स्त्री या पुरुष के साथ एकान्तवास न करने के स्थल नियमों का पालन करने की जरूरत नहीं रही, तो मुझे यह शंका हुए बिना नहीं रहेगी कि वह ढोंग करता है।
र "इन स्थूल नियमों का सख्ती से पालन करने का संस्कार मुझ पर पड़ा है, और मुझे लगता है कि इसी कारण से मैं आज तक किसी विषम परिस्थिति में फंसने से बच सका हूं।
70-26 .......... एकान्त-वास का अर्थ अधिक समझने की जरूरत है । जवान स्त्री-पुरुषों के बीच खानगी और लम्बे पत्र-व्यवहार का सम्बन्ध भी एकान्त-वास की ही गरज पूरी करता है, और उसी में स्थूल एकान्त-वास उत्पन्न होता है।
"प्राधनिक जीवन में दूसरे भी बहुत से भयस्थान बढ़ गये हैं। ये भयस्थान एकान्त-वास से उलटे ढंग के अर्थात् अति-सहवास के होते हैं। अनेक प्रकार के कामकाज और शहरी जीवन के कारण कभी अनजान में, कभी अनिवार्यरूप में और कभी अचानक स्त्री-पुरुषों को एक दूसरे के अंगों का स्पर्श हो जाता हैं। रेलगाड़ियों में, मोटरों में, सभाओं में, रास्तों में एक दूसरे से सटकर बैठना पड़ता है, चलना पड़ता है, बातचीत करनी पड़ती है; शिक्षकों को लड़कियों या बालाओं को पढ़ाना होता है-और ये सब दोनों के लिए भयस्थान हैं। इन सब परिस्थितियों में जो अपनी पवित्रता के लिए प्रावश्यकता से अधिक अभिमान करता है, वह गिरता ही है; जो जाग्रत रहता है, ऐसे अवसरों को सुखरूप नहीं बल्कि आपत्ति-रूप समझता है और यह मनोवृत्ति रखता है कि पास पाने के बजाय यथासंभव इनसे इंच भर भी दूर रहा जाय, वही ईश्वर की
- "जहाँ-जहाँ हम ऐसे दोष पैदा होने की बात सुनते हैं, वहाँ-वहाँ यह देखने मे आयेगा कि दोष पैदा होने से पहले ऊपर के स्थूल नियमों के पालन में लापरवाही, उन नियमों के लिए थोड़ा-बहुत अनादर, अपनी संयम-शक्ति पर झूठा विश्वास और बहत बार अनावश्यक स्त्री-दाक्षिण्य ichivalryही ।
" जिसे स्वयं जिन दोषों से बचना हो और समाज का खास करके भोली बालाओं का बचाव करना हो, वह इन नियमों का प्रक्षरश: - पालन करे। यही राजमार्ग है।
"जब-जब मेरे जीवन में स्त्रियों और बढ़ती हुई उमर की लड़कियों को पढ़ाने का मौका आया है, तब-तब मैंने सदा इस बात का ध्या, रखा है और आज भी रखता हूं, कि मेरी पली मेरे पास मौजूद रहे या कई स्त्रियां साथ में हो और मैं ऐसी खुली जगह में बैठकर पढ़ाऊ, पर
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