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भूमिका
१०-निर्ग्रन्थी के यशाविष्ट होने पर उसे ग्रहण करता हुमा निर्ग्रन्थ तीर्थंकरों की प्राज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता ॥ १२ ॥ ११-उन्मादप्राप्ता निग्रन्थी को पकड़ता हुमा निर्ग्रन्थ तीर्थंकरों की प्राज्ञा का प्रतिक्रमण नहीं करता ॥ १३ ॥ "१२-उपसर्ग को प्राप्त हुई निर्ग्रन्थी को पकड़ता हुमा निग्रन्थ तीर्थंकरों की प्राज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता ॥:१४ ॥
१३-यदि निर्ग्रन्थी साधिकरण-क्लेशपूर्ण स्थिति में हो तो उसे पकड़ता हा निर्ग्रन्थ तीर्थंकरों की प्राज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता ॥ १५॥
१४-प्रायश्चित्त के मा जाने पर क्लान्ता या विषण्णवदना 'निर्ग्रन्थी को पकडता हमा निर्ग्रन्थ तीर्थकरों की आज्ञा का अतिक्रमण .. नहीं करता ॥ १६ ॥
१५-भात-अन्न-पानी का प्रत्याख्यान करनेवाली निग्रन्थी (यदि मच्छित हो रही हो) को पकड़ता हुआ निग्रन्थ तायकरा का प्राशा का अतिक्रमण नहीं करता ॥ १७॥
१६-यदि अर्थजात-द्रव्य से उत्पन्न होनेवाले कारणों से निग्रंन्थी मच्छित हो जाय तो उस स्थिति में उसे ग्रहण करता हुआ निग्रंन्य तीर्थंकरों की प्राज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता ॥ १८ ॥
पाठक देख कि जन-धर्म का बाड़-विधान शद्ध सेवा-कार्य के अवसर उपस्थित होने पर उनसे पराडमख होना नहीं सिखाता। विकट स्थितियों में श्रमण-श्रमणी भी निर्विकार भाव से एक दूसरे के स्पर्श-प्रसंगों में भाग ले सकते हैं। पर ऐसी स्थितियाँ जीवन में थोड़ी ही होती हैं। ऐसी परिस्थितियों को छोड़ कर स्पर्श-वर्जन सार्वजनिक और सर्वकालिक नियम रहा है, उसमें कोई दोष नहीं बता सकता।
-गृहस्थ-जीवन में जहाँ माता-पुत्र, भाई-बहिन जैसे सम्बन्ध हैं, वहां अनिवार्य आवश्यक स्पर्श मर्यादा के साथ हर समाज में स्वीकृत है। उपर्युक्त सम्बन्धों में परिचर्या आदि की आवश्यकतावश निर्विकार स्पर्श किसी भी समाज में गृहस्थों के मर्यादित ब्रह्मचर्य का उल्लंघन नहीं माना गया है।
महात्मा गांधी की यह दलील भी ठीक नहीं कि पुत्र अपनी मां के पैर दबा सकता है, वैसे ही निविकार अवस्था में वह स्त्री-मात्र का स्पर्श करे तो दोष नहीं। निर्विकार स्पर्श अपने आप में कोई दोष नहीं पर स्त्री-पुरुषों में ऐसे निर्विकार स्पर्श का प्रचलन भी हितावह नहीं हो सकता। वह विषेला अङ्कर है, जो विष-वृक्ष के रूप में ही पल्लवित हो सकता है, अमृत-फल के वृक्ष के रूप में नहीं। महात्मा गांधी के स्पर्श-मूलक प्रयोगों पर निर्विकार पुत्र का माता के पैर दबाने का उदाहरण लागू नहीं पड़ता।
२३-महात्मा गांधी बनाम मशरूवाला
- महात्मा गांधी ने बाड़ों के सम्बन्ध में विचार देते हुए लिखा है : "संसार से नाता तोड़ लेने पर ही ब्रह्मचर्य प्राप्त हो सकता है, तो इसका कोई मूल्य नहीं है।" ब्रह्मचर्य का यह अथ नहीं कि मैं स्त्री-मात्र का, अपनी बहिन का भी स्पर्श न करूं,... मेरी बहिन बीमार हो पौर ब्रह्मचर्य के कारण उसकी सेवा करने से हिचकिचाना पड़े, तो वह ब्रह्मचर्य कौड़ी काम का नहीं।" "मैं उसे ब्रह्मचर्य नहीं कहता, जिसका अर्थ है-स्त्री का स्पर्श न करना ।" "जिसे रक्षा की जरूरत हो, वह ब्रह्मचर्य नहीं।" "मेरा यह विश्वास कभी नहीं रहा कि ब्रह्मचर्य का उपयुक्त रूप में पालन करने के लिए स्त्रियों के किसी भी तरह के संसर्ग से बिल्कुल बचना चाहिए।” पाठक देखेंगे कि यहाँ संसक्त-शय्या परिहार, स्त्रीसंग परिहार, एकशय्यासन वर्जन-ये बाड़ें विकृत रूप में अवतरित हुई हैं और ऐसी परिस्थिति में उनकी आलोचना भी बेबुनियाद-सी बन गई हैं।
महात्मा गांधी ने उपर्युक्त वाक्यों में बाड़ों की जो आलोचना की है, उस विषय में मशरूवाला का चिन्तन भी सामने आ जानापावश्यक है । उन्होंने स्त्री-पुरुष-मर्यादा और स्पर्श-मर्यादा पर चिन्तनपूर्ण विचार दिये हैं। हम नीचे उनके कई लेखों का सारांश उपस्थित करते हैं:
-"क्या समाज में और क्या संस्थाओं में, स्त्री-पुरुष के बीच अनैतिक या नाजुक सम्बन्ध पैदा होने के उदाहरण हम बहुत बार सुनते हैं। ..."यह शायद प्रासानी से कहा जा सकता है कि प्राजकल की भोग-विलास की प्रेरणा देनेवाली जीवन-पद्धति तथा स्त्रियों और पुरुषों को परसर सहवास के अधिक अवसर देनेवाली प्रवृत्तियां इसमें बहुत ज्यादा वृद्धि कर रही हैं।".....
"अपने सामने पवित्र जीवन का आदर्श रखनेवाले और उसके लिए बहुत प्रयत्नशील रहनेवाले अनेक स्त्री-पुरुषों के जीवन में भी अनैतिक सम्बन्ध पैदा होने के किस्से सुने गये हैं। ईश्वर की कृपा से मैं आज तक ऐसी स्थिति से बच सका हूँ। अपने चित्त की परीक्षा करते हुए मैं ऐसा
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