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शील की नव बाड़
महात्मा गांधी ने कहा है कि साधक अपनी बाड़ें खुद बना लें। इसमें जैन धर्म का मतभेद नहीं । ब्रह्मचर्य की समाधि के लिए जो दस नियम दिये गये हैं, वे अन्तिम संख्या के सूचक नहीं हैं । श्रागमों में स्पष्ट उल्लेख है कि जो भी ब्रह्मचर्य में विघ्न डालनेवाली बातें हैं, उनक ब्रह्मचारी वर्जन करे ।
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महात्मा गांधी ने सूप में कही हुई बाड़ों के अप्याहारों को पूरे रूप से जाने बिना ही उनके पुटित रूप को उपस्थित कर उनकी आलोचना की है।
भगवान महावीर ने संघ में श्रमण, श्रमणी श्रावक, श्राविका — इन चारों को स्थान दिया। हजारों वर्षों से यह संघ-पद्धति चला रही है। श्रमण, श्रमणियों श्रथवा गृहस्थ बहिनों का स्पर्श नहीं करते और न श्रमणियां श्रथवा गृहस्थ बहनें श्रमणों का। फिर भी संघ में सेवा कार्य भाप से चलता रहा है। परस्पर वैयावृत्य करते हुए भी स्पर्श की आवश्यकता ही नहीं घाठी सेवा के लिए स्पर्श आवश्यक होगा है, ऐसी कोई बात नहीं। महात्मा गांधी ने जो प्रयोग किये, वे स्वयं स्वर्णमूलक रहे। वे सेवा के लिए स्पर्श के प्रसंग के नहीं कंधों का सहारा लेना, नग्न अवस्था में बहिनों से सर्व प्रङ्ग स्नान करना, एक शय्या पर सोना, सेवा के लिए स्पर्श नहीं, पर स्पर्शमूलक प्रवृत्तियाँ हैं । कौन सकता है कि स्वयं मोहमूलक न हों ?
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श्रमण श्रमणियों का श्रादर्श है कि वे एक दूसरे का स्पर्श नहीं करते, पर शुद्ध सेवा के अवसर पर एक दूसरे का स्पर्श नहीं करता, ऐसा महावीर अथवा उनकी बाड़ों का विधान ही नहीं। वास्तविक वैयावृत्त्य की स्थितियों के अतिरिक्त, जैन धर्म में श्रमण श्रमणी का परस्पर स्पर्श पिता-पुत्री, माता-पुत्र, भाई-बहिन में भी निरपवाद वर्जित रहा।
गृहकल्पसूत्र में निम्न सूत्र मिलते हैं
:
१ - यदि निग्रंथ के पैर में कीला, काँटा, कांच का टुकड़ा या निकालने में अथवा समाप्त करने में असमर्थ हो, तो उसे निकालती हुई नहीं करती ॥ ३ ॥
२ यदि निकी में कोई जीव, बीज या रज पड़ जाय और वह उसे स्वयं निकालने में अथवा विशोधन करने में असमर्थ हो, तो उसे निकालती हुई अथवा विशोधन करती हुई निग्रंथी तीर्थंकर की श्राज्ञा का अतिक्रमण नहीं करती ॥ ४ ॥
कंकड़ गड़ गया हो और वह गड़कर टूट गया हो और वह स्वयं उसे अथवा विशोधन करती हुई निग्रंथी तीथंकर की प्राज्ञा का प्रतिक्रमण
३- यदि निग्रंथी के पैर में कील, कांटा, कांच या कंकड़ गड़ गया हो और गड़ कर टूट गया हो और वह स्वयं उसे निकालने में या विशोधन करने में असमर्थ हो, तो उस कांटे को निकालता हुआ निग्रंथ तीर्थंकर की प्राज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता ॥ ५ ॥
४ - यदि निग्रंथी की आँख में कोई जीव, बीज या धूलि पड़ जाय और वह उसे स्वयं निकालने में या विशोधन करने में असमर्थ हो "तो उसे निकालता हुमाधववा विशोधन करता हुआ निबंध तीर्थंकर की भाशा का अतिक्रमण नहीं करता ॥ ६ ॥
२५ – यदि निग्रंथी दुर्ग कठिन, विषम-ऊंचे-नीचे प्रथवा पर्वतीय स्थानों में चल रही हो और वह गति के स्खलन से गिर रही हो या गिरनेवाली हो, तो ऐसी स्थिति में अपनी मुनाओं से उसके अंग को पकड़ता हुआ या उसकी भुजा अथवा सम्पूर्ण शरीर को पकड़ कर उसे धवलम्बन देता हुआ निर्बंध तीर्थकरों की भाशा का अतिक्रमण नहीं करता ॥ ७ ॥
६ – यदि निग्रंथी जल-सीकरों से युक्त जलाशय में, पंक में, ढीलें कीचड़वाले जलाशय में, उदक की प्रतीति होनेवाले जलाशय में डूब रही हो तो ऐसी स्थिति में उसको पकड़ कर अवलम्बन देता हुआ निर्ग्रन्थ तीर्थकरों की प्राज्ञा का प्रतिक्रमण नहीं करता ॥ ८ ॥
७- जिस समय निग्रंथी नाव में चढ़ रही हो या नाव से उतर रही हो उस समय उसे पकड़ता हुआ या अवलम्बन देता हुआ निग्रंथ तीर्थंकरों की आज्ञा का अतिक्रमण नहीं करता ॥ १ ॥
निपी के जिस चित्त होने पर उसे ग्रहण करता हुआ या अवलम्बन देता हुआ निग्रंथ तीर्थकरों की धाशा का प्रतिक्रमण नहीं
८.
करता ॥ १० ॥
हुआ
-यदि निधी सत्ता - साभादि के मद से परवशीभूत हृदय हो गई हो तो उसे ग्रहण करता पकड़ता हुआ या अवलम्बन देता निर्ग्रन्थ तीर्थंकरों की प्राज्ञा का प्रतिक्रमण नहीं करता ॥ ११ ॥ संकाथाणाणि सव्वाणि वज्जा पणिहाण
१- उत्तराध्ययन] १६.१४
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