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भूमिका /
हिये कई जूजूद सील तमी नय बाद इसमें कोट से चि दिखा महिमा परत सार (ढाल २ दु० १)
बाद कही महापरी, हिये इसमों कहें दे कोट ए बाद छोपी वीटें रखो, तिन में मूल व चाले खोट (डा०११ ०१) इन दोहों में तथा इसी कृति में अन्यत्र प्रयुक्त 'नव वाड़' शब्द के श्राधार पर इस कृति का नाम 'शील को नव बाड़' पड़ गया मालूम देता "है और यह कृति इसी नाम से प्रसिद्ध है।
इस कृति का मूलाधार उत्तराध्ययन सूत्र का १६ व 'ब्रह्मचयं समाधिस्थानक अध्ययन है, जैसा कि स्वामीजी ने स्वयं ही जिला है उत्तराधेन सोम मकारों, तिणरो लेई में अनुसारों वहां कोट सहीत वही नय बाढ़ से संख्यकों विसतार (डा०६१ गा०१२) उत्तराध्ययन में समाधि-स्थानकों का संक्षेप में वर्णन है। स्वामीजी ने उनका विस्तार से वर्णन किया है। ऐसा करते हुए स्वामीजी ने अन्य आगमों के उल्लेखों को भी गर्भित कर लिया है। संदर्भित श्रागम स्थलों को टिप्पणियों में संगृहीत कर दिया गया है। उन्हें देखने से पता चलेगा कि इस कृति के पीछे कितना गंभीर यागमपध्ययन रहा हुआ है।
यह कृति वि० सं० १८४१ में रचित है। इसका रचना स्थल मारवाड़ का पादु ग्राम है। कृति के अन्त में निम्नलिखित गाथा
मिलती है।
इगताली ने समत अठार, फागुण विद दसमी गुरवार ओट कीर्धी पाहू मकार, समायने नरनार ३६- श्री जिनहर्षजी रचित शील की नव बाड़
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परिशिष्ट में ( पृ० १२८ से १३४) श्री जिनहर्षजी रचित 'शील की नव बाड़' दी गई है। इसकी दो प्रतियां देखने को मिलीं – एक सरदारशहर के संग्रह की और दूसरी श्री अभय जैन ग्रंथालय, बीकानेर के संग्रह की । दोनों ही प्रतियाँ कई स्थलों पर अशुद्ध हैं। हमने सरदारशहर की प्रति को मूल माना है और थोड़े से विशिष्ट पाठान्तर बीकानेर की प्रति से दिये हैं ।
सरदारशहर की प्रति से रचना-संवत का पता नहीं चलता। भाद्र पदि बीज आलस छांडि" वोकानेर की प्रति से रचना काल सं० छाडि "
उसमें रचना संवत इस प्रकार लिखा मिलता है-“निधि नयण सरस १७२६ निकलता है - "निधि नयण सुर ससि भाद्र पद वदि वीज आलस
दोनों ही प्रतियाँ विक्रमपुर में लिखित हैं। सरदारशहर वाली प्रति सं० १८४४ की है। प्रशस्ति में लिखा है- "पं० सुगुण प्रमोद मुनि : लिपि कृतं ॥...... महिमा प्रमोद मुनि हुकुम कीयो जिई लिप दीगो ॥" बीकानेर की प्रति में लेखन संवत् नहीं है। अन्त में लिखा हैपं० जीपमाणिक्येन लिपीकृता ।"
"दोनों प्रतियों में अनेक स्थलों पर काफी अन्तर है। संभव है कि विक्रमपुर में इस कृति की एकाधिक प्रतियाँ भिन्न-भिन्न प्रतियों के माधार से हो। संभवतः मूलकृति ही विक्रमपुर में हो और पाठान्तर लिपिकर्तायों के कारण बन गये हों।
स्वामीजी की कृति सं० १८४१ की रचना है। और श्री जिनहर्षजी की कृति बीकानेर की प्रति के श्राधार से सं० १७२६ की। इस तरह श्री जिनहर्षजी की कृति पुरानी ठहरती है।
श्री जिनहर्षजी की कृति में कुल २५ दोहे और ७१ गाथाएं हैं, जब कि स्वामीजी की कृति में कुल ४६ दोहे और १६७ गाथाएं ।' श्री जिनगी की कृति में नो बाड़ों का ही वर्णन है, जब कि स्वामीजी की कृति में उत्तराध्ययन- वर्णित दसवें समाधिस्थानक का भी मोट के रूप में वर्णन है।
स्वामीजी ने श्री जिनहणजी की कृति का उपयोग अपनी कृति में किया है। नीचे हम इस विषय में विस्तार से प्रकाश डाल रहें हैं। ढाल - १
श्री जिनहर्षजी की कृति में इस ढाल में ७ गाथाएँ और ७ दोहे हैं और स्वामीजी की कृति में गाथाएँ धौर ८ दोहे । दोहों में से १,२,५,६ और ७ – ये पाँच प्रायः एक-से हैं। सामान्य शाब्दिक परिवर्तन है । -
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तीसरे दोहे का चौथा चरण स्वामीजी की कृति में "जिम पावन हुवइ देह" के स्थान में "पांमें भवजल देह" है । चौथे दोहे के प्रथम चरण में "गुरु जो पोते कड़े के स्थान में स्वामीजी की कृति में "फोड़ केवली गुण करें है और चन्तिम चरण में "तौ पिप्य कक्षा न जाइ " के स्थान में "पूरा कह्या न जाय " है ।
रही हों और ये प्रतियां
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