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शील की नव बाड़ १४० चाहिए, वर्ना वह कभी खाली नहीं हो सकता; उसी तरह मन को निर्मल और शुद्ध बनाने के लिये उसमें घुसनेवाली चीजों की तरफ ध्यान देना चाहिए।"
..."द्वेषभाव से विकार का चिंतन करके भी हम विकार से बच नहीं सकते। विकार का द्वेषभाव से चिंतन करने में भी विकारही स्मरण तो रहता ही है। विकार की साधना करनेवाले को चाहिये कि वह विकार को भूल ही जाय। इसलिए इसका सबसे अच्छा रास्ता चित्त को दूसरे काम में लगा देना ही है। कोई उदात्त रस चित्त को लगा देना, विकार को दूर करने का सच्चा उपाय है।"
..."यदि विकार पैदा हों तो उनका शत्रभाव या मित्रभाव से विचार करने के बजाय किसी नये ही विचार में मन को रमाने की कोशिश करनी चाहिए।"
"भोगों की इन पाहुतियों में पहली पाहुति विषयेच्छा की होनी चाहिये । धर्म, आध्यात्मिक जीवन, आर्थिक स्थिति, शारीरिक स्थिति, राजनीति, स्त्री-शिक्षा, तत्त्वज्ञान इत्यादि-जिस-जिस दृष्टि से भी मैं विचार करता हूं, मेरे विचार मुझे ब्रह्मचर्य की सीढ़ी पर ही लाकर खड़ा कर देते हैं। ...मैं वीर्यरक्षा की बात करता हूं। यदि आपको ऐहिक संकल्पों या पारमार्थिक संकल्पों की कोई भी सिद्धि इसी जीवन में पानी हो. तो उसे ब्रह्मचर्य के बिना पाने की प्राशा मत रखिये।"
३५-कृति-परिचय इस कृति के रचयिता स्वामी भीखणजी का जन्म मारवाड़ के कंटालिया ग्राम में सं० १७८३ में हुआ था। आपके पिताजी का नाम साह बलूजी था और माताजी का नाम दीपावाई। आपने विवाह किया और एक पुत्री भी हुई, पर आपकी चित्तवृत्ति वैराग्य की ओर ही झकी
- हुई थी।
अन्त में आपने दीक्षा लेने का विचार कर लिया। पत्नी ने भी साथ देना चाहा । प्रव्रज्या की इच्छा से पति-पत्नी दोनों ब्रह्मचर्यपूर्वक रहने लगे। साथ ही एकान्तर भी करने लगे। जो कुछ अर्से बाद पत्नी का देहान्त हो गया। सम्बन्ध पाने लगे पर स्वामीजी ने विवाह न करने का निश्चय कर लिया। और २५ वर्ष की पूर्ण युवावस्था में प्रवजित हो गये।
आपको दीक्षा सं० १८०८ में हुई। सं० १८१६ तक आप आचार्य रुघनाथजी के सम्प्रदाय में रहे । बाद में उनसे पृथक हो आपने नव दीक्षा ग्रहण की। यह घटना आषाढ़ सुदी १५, १८१७ की है। आपका सम्प्रदाय 'तेरापन्थ' के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस सम्प्रदाय के नायक रूप में आप ४३ वर्ष तक विभिन्न स्थानों में पाद-विहार करते रहे और महान् लोकोपकार किया। प्रापका देहान्त सं० १८६० में हुमा।
स्वामीजी उत्कट वैरागी थे । ब्रह्मचर्य के प्रति आपका सहज झुकाव था, यह उपर्युक्त घटना से प्रकट है। यही कारण है कि शील-विषयक आपकी यह कृति सहज प्रसाद-रस से प्रोत-प्रोत है।
इस कृति में कुल ११ ढालें हैं। जैसा कि पहले बताया जा चुका है पहली ढाल में ब्रह्मचर्य की महिमा का सुन्दर वर्णन है और अवशेष एक-एक ढाल में ब्रह्मचर्य की रक्षा के एक-एक समाधि-स्थानक का सारगर्भित विवेचन। ...
इस कृति में कुल मिलाकर ४६ दोहे और १६७ गाथाएँ हैं। प्रत्येक ढाल के प्रारम्भ में दोहे हैं जो उस ढाल के विषय का बड़ा सुन्दर संक्षिप्त परिचय दे देते हैं। यह कृति विभिन्न रागिनीपूर्ण गीतिकाओं में ग्रथित है, अत: श्रुति-मधर होने के साथ-साथ बड़ी भावोत्तेजक है। प्रत्येक ढाल में सहज गंभीर प्रवाह है और हृदय को प्रभावित करनेवाला आध्यात्मिक रस।
स्वामीजी ने अपनी अन्य कृतियों की तरह इस कृति का भी अपनी ओर से कोई नाम नहीं दिया। कृति के विषय की सूचना इस रूप में की है : १-स्त्री-पुरुष-मर्यादा पृ० २२२-वही पृ० २३ ३-वही पृ० २६ ४-वही पृ० ७६
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