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भूमिका
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८ चरक संहिता में कहा है-"जिस तरह गन्ने में रस, दही में घी और तिल में तल रहता है. उसी तरह वीर्य भी परीर के प्रत्यक मा व्याप्त है। भीगे हुए कपड़े में से जसे पानी गिरता है, वैसे ही वीर्य भी स्त्री-पुरुष के संयोग से तथा टा, कल्प,पीड़नादिसे अपने स्थान से नात्र गिरता है।"
.. महात्मा गांधी लिखते हैं: "रत्ती-भर रति-सुख के लिए हम मन भर से अधिक शक्तिः पल भर में गंवा बैठते है। जब हमारा नशा उतरता है, तो हम रङ्क बन जाते हैं ।" "जान-बूझ कर भोग-विलास के लिए वीर्य स्रोना और शरीर को निचोड़ना कितनी बड़ी मूर्खता है ? वाय का उपयोग तो दोनों की शारीरिक और मानसिक शक्ति को बढाने के लिए है। विपय-भोग में उसका उपयोग करना उसका अति दुरुपयोग है और इस कारण वह बहुतेरे रोगों की जड़ बन जाता है। अत: "प्रकृति ने जो शुद्ध दाक्ति हमें दे रखी है, हमें उचित है कि उसको शरीर में
का उपयाग केवल तन को नहीं, मन, बुद्धि और धारणा शक्ति को भी अधिक स्वस्थ-मबल बनाने में करें।" "जिस तरह चूनेवाले नल में भाप रखने से कोई शक्ति पैदा नहीं होती, उसी प्रकार जो अपनी शक्ति का किसी भी रूप में क्षय होने देता है, उसमें उस शक्ति का होना असंभव है।"
श्रीमती प्रलाइस स्टॉकहम ने अपने 'उत्पादक शक्ति' शीर्षक निवन्ध में लिखा कि जब मनुष्य को अन्य प्राकृतिक क्षुधानों के साथ-साथ विषय-क्षुघा लगती है, तब वह समझ ले कि यह किसी महान् उत्पादक कार्य के लिए प्रकृति का प्रादेश है। केवल वह विषय-वासना के हीन रूप में प्रकट हो रहा है । वह एक कूवत है जिसको वलिष्ठ इच्छा-शक्ति और दृढ़ प्रयत्न के द्वारा बड़ी आसानी से अन्य शारीरिक अथवा माध्यात्मिक कार्य में परिणत किया जा सकता है।
संत टॉल्स्टॉय ने इस निवन्ध पर टिप्पणी करते हुए अपना अनुभव लिखा है :
"मेरा भी यही खयाल है। वह सचमुच एक शक्ति है, जो परमात्मा की इच्छा को पूर्ण करने में सहायक हो सकती है। वह पृथ्वी पर स्वर्ग-राज्य की स्थापना करने में अपना महत्वपूर्ण कार्य कर सकती है। ब्रह्मचर्य द्वारा इस शक्ति को ईश्वरेच्छा पूर्ण करने में प्रत्यक्ष लगा देना जीवन का सर्वोच्च उपयोग है।"
निशीथ भाष्य में कहा है-"जब-जब काम-विकार की जागृति हो साधक को दीर्घ तपस्या, वयावृत्त्य, स्वाध्याय, दीर्घ विहार में प्रवृत्त होना चाहिए।" इसका तात्पर्य भी यही है कि काम-विकार के समय साधक महान् साधना में लग जाय तो वह काम-विकार उपशांत हो उस महान साधना को पूरा होने का अवसर प्रदान करता है। काम-विकार शांत होने पर चित्त-वृत्ति महा तपस्या मादि में परिवर्तित होकर महान् कर्म-क्षय का कारण बनती है।
इस सम्बन्ध में श्री मशरूवाला ने लिखा है :
"...अब्रह्मचर्य की जड़ तो मनोविकार में है...अर्थात् सब स्थूल नियमों का पालन करते हुए भी अगर मन के सामने विकारी वातावरण हो, तो ब्रह्मचर्य का पालन नहीं किया जा सकता। ___ "जैसे किसी तेज झरनों वाले कुएं को साफ करना हो तो उसके झरनों में गुदड़ी या मोटा कपड़ा ठूस कर उसका पानी उलीचना
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पी
१-चरकसंहिता, चिकि० अ० २:
रस इक्षौ तथा दध्नि सर्पिस्तैलं तिले तथा । सर्वत्रानुगतं देहे शुक्र संस्पर्शने यथा ॥...... तत् स्त्रीपुरुषसंयोगे चेष्टासंकल्पपीढनात् ।
शुक्र प्रच्यवते स्थानाज्जलमात पटादिव ॥ २-अनीति की राह पर पृ०६१ ३-ब्रह्मचर्य (प० मा०) पृ०६ ४-अनीति की राह पर पृ०६०-६१ ५ब्रह्मचर्य (प. भा०) पृ० १०२ ६-स्त्री और पुरुष पृ० ५३-४ -देखिए पृ० ११५ पा० टि० १ (ख)
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