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भूमिका
का टॉलस्टॉम लिखते हैं-"समी बाह्य इन्द्रियों को लुभानेवाली चीजों से विकार उत्पन्न होता है । घर की सजावट, चमकीले कपड़े, सङ्गीत, सुगन्ध, स्वादिष्ट भोजन, मृदुल स्पर्शवाली चीजें सभी विकारोत्तंजक होती हैं।" ... एकबार लड़कियां लड़कों की हरारतों से अपना बचाव कैसे करें-यह प्रश्न महात्मा गांधी के सामने पाया। इन हरकतों का प्राधार कछ अंश में स्वयं लड़कियां ही किस प्रकार है, यह बताते हुए महात्मा गांधी ने लिखा :
- "मुझं डर है कि पाजकल की लड़की को भी तो अनेकों की दृष्टि में आकर्षक बनना प्रिय है। वे मति साहस को पसंद करती हैं। प्राजकल की लड़की वर्षा या धूप से बचने के उद्देश्य से नहीं, बस्कि लोगों का ध्यान अपनी मोर खींचने के लिए तरह-तरह के भड़कीले कपड़े पहनती है। वह अपने को रंगकर कुदरत को भी मात करना और असाधारण सुन्दर दिखाना चाहती है। ऐसी लड़कियों के लिए कोई अहिंसात्मक मार्ग नहीं है । हमारे हृदय में अहिंसा की भावना के विकास के लिए भी कुछ निश्चित नियम होते हैं। अहिंसा की भावना बहुत महान् प्रयत्न है। विचार और जीवन के तरीके में यह क्रांति उत्पन्न कर देता है। यदि लड़कियां..."बताये गये तरीके से अपने जीवन को बिल्कुल ही बदल डालें तो उन्हें जल्दी ही अनुभव होने लगेगा कि उनके सम्पर्क में पानेवाले नौजवान उनका पादर करना तथा उनकी उपस्थिति में भद्रोचित व्यवहार करना सीखने लगे हैं।"
टॉल्स्टॉय और महात्मा गांधी दोनों ने ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए आगम के 'विभूषानुपाति' न होने की बात का समर्थन किया है। ब्रह्मचारी स्त्री-पुरुष दोनों ही अपने वेषभूषा और रहन-सहन में सादा हों, यह ज्ञानियों का निष्कर्ष है। 'मा च संस्करु'-शरीर-संस्कार मत करो, यह सूत्र स्त्री-पुरुष दोनों को भापत से बचाता है। 22-12-
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. कोट (ढाल ११): इन्द्रिय-जय और विषय-परिहार
स्यादि रसं मा पिपास'-रूप प्रादि रसों का पिपासु मत हो । यही दसर्वा समाधि-स्थान है। पागम में दसवें समाधि-स्थान में ब्रह्मचारी के लिए शब्द, स्य, गन्ध, रस और स्पर्श-इन पांच दुर्गय काम-गुणों का परिवर्जन प्रावश्यक बतलाया है। ब्रह्मचारी मनोज्ञ विषयों में प्रेम अनुराग न करे-'विसरम मान्ने पे नाभिनित्रेसर' (दश० ८.५८)। वह प्रात्मा को शीतल कर तृष्णा-रहित हो जीवन-यापन करे-'विणीय-तग्रहो विहरे सीईभूएण अप्पणा' (दश० ८.५६)।
श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रस और स्पर्श—ये पाँच इन्द्रियाँ हैं। शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श-ये क्रमशः उपर्युक्त इन्द्रियों के विषय हैं । ये विषय पच्छे या बुरे दो तरह के होते हैं। स्वामीजी ने बतलाया है कि अच्छे-बुरे दोनों प्रकार के शब्द, रूप, गन्ध, रस और स्पर्श में मध्यस्थ भाव रखना-निरपेक्ष रहना यही कामगुणों का जीतना है। ब्रह्मचारी के लिए अच्छे-बुरे सब विषयों में समभाव रखना परमावश्यक है। स्वामीजी ने अन्यत्र कहा है-"मनोरम शब्दादि में हैत-प्रीति न करना और अमनोरम के प्रति द्वेष नहीं करना, यही इन्द्रियों का निग्रह, दमन, वश करना और संवरण है।
मासिक पारी इम निग्रह करणी दमणी जीतणी, वस करणी संवरणी इण रीत ॥ हरतइन्द्री में निग्रह इण विध करणी, मन गमता शयद तूं मगन न थाय । अमनोगम उपरे धेप न आणे, तिण सरतइन्द्री निग्रह कीधी छे ताय॥ मुरतइन्द्री में निग्रह कही जिण रीते, दमणी में जीतणी इमहीज जाणो।
इमहिज बस करणी में संवर लेणी, या पांचों रो परमारथ एक पिछीणो॥ १-स्त्री और पुरुष पृ० १४६ २-उत्त० १६.१०:
सद्दे स्वे य गन्धे य रसे फासे तहेव य।
पंचविहे कामगुणे निच्चसो परिवज्जए । ३-भिक्षु-ग्रन्थ रत्नाकर (खगडः १): इन्द्रियवादी री चौपइ ढाल १४ दोहा । ४-वही गा० ५.६
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