________________
१२५
भूमिका
on अर्थशास्त्र के क्षेत्र में जिस प्रकार अकाल पीडित को एक बार या अनेक बार भोजन करा देने से उसके पेट का सवाल हल नहीं होता, उसी प्रकार शारीरिक विषयोपभोग से मनुष्य को कभी सन्तोष नहीं होता। फिर सन्तोष कैसे होगा? ब्रह्मचर्य के प्रादर्श की सम्पूर्ण भव्यता को भली-भांति समझ लेने से, अपनी कमजोरी पूर्णतया स्पष्टरूप से देख लेने से. और उसे दूर कर उस उच्च प्रादर्श की ओर बढ़ने का निश्चय करने से।
__"संघर्ष जीवनमय और जीवन संघर्षमय है। विश्रान्ति का नाम भी न लीजिए। प्रादर्श हमेशा सामने खड़ा है। मुझे तब तक शान्ति नसीब नहीं हो सकती, जब तक मैं उस आदर्श को प्राप्त नहीं कर सकता। S E PTE - "संसार की जितनी लड़ाइयाँ हैं, उनमें कामाभिलाषा (मदन) के साथ होनेवाली लड़ाई सबसे ज्यादा कठिन है, और सिवाय प्रारम्भिक बाल्यावस्था तथा अत्यन्त वृद्धावस्था के कोई भी ऐसी अवस्था अथवा समय नहीं है, जिसमें मनुष्य इससे मुक्त हो। इसलिए किसी मनुष्य को इस लड़ाई से न तो कभी हताश होना चाहिए और न कभी अवस्था की प्राप्ति की आशा करनी चाहिए जिसमें इसका प्रभाव हो। एक क्षण के लिए भी किसी को निर्बलता न दिखानी चाहिए, किन्तु उन समस्त साधनों को एकत्र कर उनका उपयोग करना चाहिए, जो उस शत्रु को निःशस्त्र बना देते हैं। उन बातों का परित्याग कर देना चाहिए जो शरीर और मन को उत्तेजित ( दूषित) करनेवाली हों और हमेशा काम करने में व्यस्त रहना चाहिए।"
___ "पर प्रधान और सर्वोत्तम उपाय तो अविरत संघर्ष ही है ! मनुष्य के दिल में हमेशा यह भाव जागृत रहना चाहिए कि यह संघर्ष कोई नैमित्तिक या अस्थायी अवस्था नहीं, बल्कि जीवन की स्थायी और अपरिवर्तनीय अवस्था है।"
जैन धर्म में भी सतत् जागृति को संयमी का परम धर्म कहा है । वह सोये हुनों में जागृत रहे-"मुत्तेमु या वि पडिबुद्धजीवी" भारंडपक्षी की तरह अप्रमत्त रहे-"भारंडपक्खी व चरेऽपमत्ते", मुहुर्तमात्र भर भी प्रमाद न करे-"महुतमवि णो पमाए"। वीर पुरुष संयम में परति को सहन नहीं करता और न असंयम में रति को सहन करता है। चूंकि वीर पुरुष संयम में अन्यमनस्क नहीं होता, अत: असंयम में अनुरक्त नहीं होता-नारइ सहई वीरे, वीरे न सहई रति । जम्हा अविमणे वीरे तम्हा वीरे न रज्जई।" वह असंयम जीवन में मानन्द भाव को घृणा की दृष्टि से देखे-"निव्विंद नंदि इह जीवियस्स।" ज्ञानी, जिसे मात्मा-साधना के सिवा अन्य कुछ परम नहीं, कभी प्रमाद नहीं करता-"अणन्नपरमं नाणी, नो पमाए कयाइवि ।" ये सारी आज्ञाएं अविश्रान्त रूप से जागृत रहने की ही प्ररेणाएँ देती हैं। वास्तव में ही संयमी के लिए अन्तिम क्षण तक विश्राम जैसी कोई चीज नहीं होती। "जावज्जीवमविस्सामो"-जीवन-पर्यंत विश्राम नहीं, यही उसके जीवन का सूत्र होता है।
संयमी को किस तरह उत्तरोत्तर संघर्ष करते रहना चाहिए-इसका आदर्श सुदर्शन के जीवन-वृत्त द्वारा दिया गया है।
सुदर्शन सेठ की कथा संक्षेप में पहले दी जा चुकी है । सुदर्शन का जीवन ब्रह्मचर्य के क्षेत्र में निरन्तर संघर्ष का रहा। स्वामीजी ने लिखा है: "सुदर्शन ने शुद्ध मन से निरतिचार शील व्रत का पालन किया। घोर परीषह उत्पन्न होने पर भी वह डिगा नहीं। जो निर्मलता पूर्वक शील का पालन करते हैं, वे सब ब्रह्मचारी पुरुष महान् हैं, परन्तु सुदर्शन का चरित्र तो व्याख्यान करने योग्य ही है, क्योंकि उसने घोर परीषहों के सम्मुख अविचल रह ब्रह्मचर्य का पालन किया। उसका चरित्र ऐसा है कि जिसका पतन हो गया हो, वह भी सुने तो ब्रह्मचर्य के प्रति उसके प्रेम की वृद्धि हो और पुनः उसके पालन में तत्पर हो । कायर उसके चरित्र को सुनकर वीर होते हैं और जो शूर हैं, वे और भी अडिग होते हैं।"
र कपिल पुरोहित की स्त्री कपिला ने जब प्रपंच रच दासी के द्वारा सुदर्शन को अपने महल में दुला लिया और उससे भोग की प्रार्थना करने लगी तब सुदर्शन की क्या अवस्था हुई, उसका वर्णन स्वामीजी ने इस प्रकार किया है : "कपिला की बात सुनकर और उसके अनुप रूप को देखकर सुदर्शन मन में उदास हो गया। उसका गात्र पसीने से भर गया। शरीर कांपने लगा। वह सोचने लगा-मैं प्रपंच को न समझ. इस प्रकार फंस गया। पर कपिला चाहे कितने ही उपाय करे, मैं अपने शील को खण्डित नहीं करूंगा। यदि मेरी प्रात्मा वश में है. तो मझे १-स्त्री और पुरुष पृ० ४३ । २-वही पृ०४४ ३-वही पृ० ५५ ४-भिक्षुध रत्नाकर (ख०२): सुदर्शन चरित पृ०६३३
Scanned by CamScanner