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[ ६ ] डाल गा० २-३ :
स्वामीजी की इन गाथाओं का आधार निम्नलिखित श्लोक है
जहा कुक्कुडपोयस्स निच्च कुललओ मयं
एवं
भयारिस्स इत्थीविग्गहओ भयं ॥
- दस० ८:५४
जेसे मुर्गी के बच्चे को दिल्ली से हमेशा भय रहता है उसी तरह ब्रह्मचारी को स्त्री-शरीर से भय रहता है।
[७] ढाल गा० ४ :
स्वामीजी को इस गाथा का आधार निम्नलिखित पाठ है :
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णो णिग्थे इत्थीपसुपंडग सत्ताई सयणासणाई सेवित्तर सिया केवली वूया - णिग्गंथेणं इत्थोपसुपण्डगसंसत्ताई सयणासणाई सेवमाणे संतिया संतिविभंगा संतिकेवलिपणताओ धम्माओ मेसेजा।
हत्थपायपडिच्छिन्नं कण्णनासविकप्पियं । अवि वाससई नारि वंभयारी विवजाए ॥
- आचारांग सुत्र श्रु० २ अ० १५ चौथे महाव्रत की पाँचवी भावना - निर्व्रन्थ, स्त्री, पशु, नपुंसक से संसक्त शय्या, आसन का सेवन न करे केवली भगवान ने कहा है कि स्त्री, पशु तथा नपुंसक से संसक्त शय्या तथा आसन के सेवन से शान्ति का भेद, शान्ति का भंग होता है और निर्ग्रन्थ केवली प्ररूपित धर्म से भ्रष्ट हो जाता है। [८] ढाल गा० ४ :
स्वामीजी की इस गाथा का आधार निम्नलिखित श्लोक है :
कामं तु देवीहि विभूसियाहिं। न चाइया खोभइउं तहा वि पूर्णताहि लि नच्चा विवितवासी मुगिणं
- दस०८:५६
जिसके हाथ पैर एवं कान कटे हुए हैं तथा जो पूर्ण सौ वर्ष की वृद्धा है ऐसी स्त्री की संगति का भी ब्रह्मचारी विवर्जन करे। [ ६ ] ढाल गा० ५ :
स्वामीजी को इस गाथा का आधार निम्नलिखित लोक है :
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इसकी कथा परिशिष्ट में देखिए परिशिष्ट-क कथा १४
शील की नव बाद
[११] कुल बालूड़ा
इसकी कथा परिशिष्ट में देखिए। परिशिष्ट-क कथा १५ [१२] ढाल गा० १ :
स्वामीजी की इस गाथा आधार का निम्नलिखित छोक है :
तिगुत्ता ॥ पसस्थी ॥
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- उत्त० ३२ : १६
मन, वचन और काया से गुप्त जिस परम संयमी को विभूषित देवाज्ञनाएं भी काम से विह्वल नहीं कर सकतीं उस मुनि के लिए भी एकान्तवास ही हितकर जान स्त्री आदि से रहित एकान्त स्थान में निवास करना ही श्रेष्ठ है।
[१०] सिंह गुफावासी यति
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जहा बिरालावसहस्स मूले, न मूसगाणं वसही पसल्या एमेव इत्थीनिलयस्स मज्झे न वंभयारिस्स समो निवासी ॥
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-उत्त० ३२ : १३
—-जैसे विल्लियों के निवास के मूल में- समीप चूहे का रहना शुभ नहीं, उसी तरह से जिस मकान में स्त्रियों का वास हो, उस स्थान में ब्रह्मचारी के रहने में क्षेम-कुशल नहीं ।
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