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शोल की नव वाड़
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१६-सरस आहार तो जीहाई रह्यो,
लूखोई पिण आहारो रे। १० चांप चांप दिन प्रतें करणों नहीं,
ते कहिलं आठमी बाड़ो रे।ए०॥
१६-सरस आहार तो दूर रहा बल्कि रूखा आहार भी लूंस-ठूस कर नित्य प्रति नहीं करना चाहिए। आठवीं बाड़ में मैं यही बताऊँगा।
टिप्पणियाँ
[१] दोहा १:
इस दोहे में स्वामीजी ने सातवीं बाड़ का स्वरूप बताया है। इस सातवी वाड़ में ब्रह्मचारी के लिए सरस आहार वर्जनीय है। इसका आधार निम्न आगम वाक्य है:
नो निग्गथे पणीय आहारं आहरेजा।
-उ०१६: ७
-निग्रंथ प्रणीत आहार का सेवन न करे। 'प्रणीत' शब्द का अर्थ है जिससे घृत-विन्दु झर रहे हों ऐसा आहार । उपलक्षण रूप से धातु को अत्यन्त उत्तेजित करनेवाले अन्य आहार भी प्रणीत आहार में समाविष्ट हैं ।
- ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए अत्यन्त आवश्यक है कि ब्रह्मचारी सर्व प्रकार के कामोत्तेजक आहार-पान का परिवर्जन करे। स्वामीजी ने स्पष्ट किया है कि ब्रह्मचासे नित्य-प्रति ऐसा आहार न करे। यदा-कदा सरस आहार करने का प्रसंग उपस्थित हो तो अति मात्रा में उसका सेवन न करे।
[२] दोहा २:
ब्रह्मचारी के लिए स्निग्ध सरस आहार क्यों वर्जनीय है. इसका कारण इस दोहे में बताया गया है। - 'उत्तराध्ययन सूत्र' में कहा है: ......
पणीय भत्तपाणं तु. सिप्प मयविवडणं । . बंभचेररओ भिक्खू, निच्चसो परिवज्जए ।
-उत्त०१६: ७ -प्रणीत आहार कामोद्रेक-विषय-वासना को शीघ्र उत्तेजित करनेवाला होता है। अतः ब्रह्मचर्य में रत भिक्षु ऐसे भोजन-पान से सर्वदा दूर रहे। स्वामीजी के प्रस्तुत दोहे का आधार 'उत्तराध्ययन सूत्र' का उपर्युक्त श्लोक ही है।
मामा .... 'दसवैकालिक सूत्र' में कहा है :
. विभूसा इत्थिसंसग्गो, पणो रसमोयणं । ___ नरस्सत्तगवेसिस्स, विसं तालउडं जहा ॥
-दस०८ : ५७ -प्रणीत रसयुक्त मौजन, विभूषा और स्त्री-संसर्ग आत्म-गवेषो पुरुष के लिए तालपुट विष की तरह है।
घृतादि से परिपूर्ण आहार स्निग्ध-मारी होता है। स्निग्ध आहार धातु को दिप्त करता है। धातु के दीप्त होने से मनोविकार बढ़ता है। मनोविकार बढ़ने से अंग-कुचेष्टा होती है। इससे मनुष्य मोग में प्रवृत्त होता है। इस तरह वह बहुमूल्य ब्रह्मचर्य व्रत को नष्ट कर डालता है।
१-उत्त० १६:५ की नैमि० टी० पृ० '२२१ : नो 'प्रणीत' गलद्विन्दु, उपलक्षणत्वाद् अन्यमप्यत्यन्त धातूद्रेककारिणम् आहारम् आहारयिता भवति यः स निन्थः।
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