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भूमिका
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शारीर को गर्मी पहुंच सके। ऐसे अवसरों पर बहनें भी होती. प्रभ हो सकता है-ऐसी स्थतियों में महात्मा गांधी को ब्रह्मचारी कहा जा सकता है या नहीं। ऐसा प्रभ उठा। इस प्रश्न का उत्तरजनी एकातहष्टि से नहीं दे सकता। महात्मा गांधी ने इन सारे प्रयोगों के अवसर पर अपनी मानसिक स्थिति को सम्पूर्णतः निविकार बतलाया है। उन्होंने कहा है-"पिता अपनी पुत्री का निर्दोष स्पर्श सब के सामने करे, उसमें दोष नहा दखता। मेरा स्पर्श उस प्रकार का है।" "इस व्यवहार के बीच अथवा उसके कारण कभी कोई अपवित्र विचार मेरे मन में नहीं पाया।""""मेरा माचरण कभी छिपा नहीं रहा है।...""मेरा माचरण पिता के समान रहा है" "मेरे लिए तो इतनी सारी स्त्रियाँ बहिन और बच्चियाँ ही पी।" मगर महात्मा गांधी की मानसिक, वाचिक भौर कायिक स्थिति ऐसी ही थी तो कोई भी जनी उन्हें अब्रह्मचारी कहने का साहस नहीं कर सकेगा। पर उनके मन में जरा भी.मोह रहा होगा, अगर ये प्रवृत्तियां मोह-वश ही होती रही होंगी, तो महात्मा गांधी अपनी तुला में ही पूर्ण ब्रह्मचारी नहीं ठहरगे। उन्होंने स्वयं ही कहा था-"जिस बात की जांच करना आवश्यक है, वह है मेरी मानसिक पृत्ति-वह ठीक है अथवा उसमें काम-वासना का भवशेष है ।" भगर उसमें "अज्ञातभाव से भी काम-वासना" का अवशेष रहा तो उन्हें ब्रह्मचारी नहीं कहा जा सकेगा।
. स्थलिभद्र ने कोशा गणिका के यहाँ चातुर्मास किया। स्पर्श और एक-शय्या-शयन से दूर रहे, पर जहाँ तक अन्य बाड़ों का प्रश्न था उनकी स्थिति वहां नहीं ही कही जा सकती है। रागवती वेश्या के घर में वास था। एकात था। वेश्या अनुगा थी। षट्रसयुक्त भोजन था। सुन्दर महल था। वेश्या का सुन्दर रूप-दर्शन था। युवावस्था थी। वर्षाऋतु.थी। मधुर संगीत था। नाना प्रकार का अनुनय-विनय था। ये सब होने पर भी स्थूलिभद्र दुष्कर, दुष्कर-दुष्कर, महा दुष्कर करनेवाले कहे गये हैं। महात्मा गांधी ने स्पर्श और एक-शय्या-शयन का प्रयोग किया। उन्होंने स्थलिभद्र से भी मागे का कदम उठाया। यदि कसौटी ठीक है, यदि स्थलभद्र कई बाड़ों की अनवस्थिति में भी प्रात्मजय, मनजय के कारण मादर्श ब्रह्मचारी हो सके तो वैसी ही स्थिति में महात्मा गांधी ब्रह्मचारी नहीं हो सकते, ऐसा कोई भी जैनो नहीं कह सकता।
. इस दिशा में सुदर्शन का प्रसंग भी एक प्रकाश देता है। सुदर्शन चम्पा नगरी के बारह व्रत धारी श्रावक थे । इस नगरी के अधिपति पात्रीवाहन राजा का मंत्री कपिल, सुदर्शन का मित्र था। उसकी पत्नी का नाम कपिला था। एक बार प्रसंग-वश सुदर्शन अपने मित्र कपिल के घर ठहरे। कपिला उसके सौंदर्य को देखकर मुग्ध हो गयी। एक दिन कपिल घर पर नहीं थे। कपिला ने दासी के द्वारा सुदर्शन को कहलाया"कपिल बीमार हैं और माप को याद कर रहे हैं।" मित्र के स्नेहवश सुदर्शन कपिल के घर पहुंचा। दासी उसे महल में ले गई। कंपिला ने दार बन्द कर लिया और सुदर्शन से भोग की प्रार्थना करने लगी। सुदर्शन निर्विकार रहे। कपिला काम-विह्वल हो उनके शरीर से लिपट गई। फिर भी सुदर्शन निर्विकार रहा। कपिला बोली : "क्या आप में पुरुषत्व नहीं ?" सुदर्शन बोले : "हां मैं नपुंसक हूं।"
- मनोरमा के अतिरिक्त सब स्त्रियां सुदर्शन के लिए मां-बहिन के समान थीं। वह वास्तव में उन सब के प्रति नपुंसक-से थे। कपिला उनसे दूर हुई। सुदर्शन घर लौटे।
एक बार राजा ने नगरी में वसन्त-महोत्सव रचा । सब का जाना अनिवार्य था । सुदर्शन की पत्नी मनोरमा भी अपने पुत्रों सहित उत्सव में उपस्थित हई। महारानी अभया ने, मनोरमा के देवकुमार सदृश पुत्रों को देखकर दासी से पूछा-"ये पुत्र किस के हैं ?" दासी ने कहा"यह नगर के सुदर्शन सेठ के पुत्र हैं। मनोरमा इनकी मां है"। अभया सुदर्शन के प्रति मोहित हो गई।
एक बार सुदर्शन चतुर्दशी के दिन पोषध कर रात्रि में श्मसान में ध्यानस्थ थे। रानी के कहने से धाय सुदर्शन को उसी अवस्था में उठा कर महल में ले भाई। अभया सुदर्शन को आकर्षित करने लगी, पर वह तो मिट्टी के से पुतले बने रहे। वे प्रभया के समीप भी उसी तरह समाधिस्थ रहे, जैसे श्मसान में हों । अन्त में रानी कुपित हो चिल्लाने लगी--"बचानो ! बचायो !! सुदर्शन मुझ पर अत्याचार कर
१-My days with Gandhi p. 204 २-पृ०७३ ३-पृ०७४ ४-पृ०७५ ५-Mahatma Gandhi-The Last Phase p. 591
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