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शील की नव बाड
एक-दूसरे को छूने से बुराई पैदा हुए बिना रह नहीं सकती।......मुझे लगता है कि स्पर्श-सुख की वजह से प्रादमी, बदमाश हो तो, एक महीने या एक हफ्ते में और भला हो तो, धीरे-धीरे १० बरस में भी पाप की तरफ झुके बिना नहीं रह सकता ।...यह भी खयाल आता है कि स्पर्श-मात्र-छोड़ देने से क्या काम चल सकेगा ?..."
महात्मा गांधी ने उत्तर दिया : "बहुतेरे नौजवान लड़के-लड़कियों की यही हालत होती है। उनके लिए सीधा रास्ता यही है : उन्हें स्पर्शमात्र का त्याग करना ही चाहिए। किताबों में लिखी हुई मर्यादाएं उस समय में होनेवाले अनुभव से बनाई गई हैं। लेखकों के लिए वे जरूरी भी थीं। साधक को अपने लिए उनमें से कुछ मर्यादाएँ या दूसरी कुछ नई मर्यादाएं बना लेनी होंगी। अन्तिम मंजिल को बीच में रखकर उसके प्रासपास एक दायरा खीचें तो मंजिल तक पहुंचने के कई रास्ते दिखाई देंगे। उनमें से जिसे जो प्रासान हो, उसपर चले और मंजिल पर पहुंचे। जिस साधक को अपने-आप पर भरोसा नहीं, वह अगर दूसरों की नकल करने लगे तो जरूर ठोकर खायगा।.....
"जिसका राम दिल में बसता है, ऐसे साधक के लिए सारी स्त्रियां बहन या मा हैं । उसे कभी यह खयाल भी नहीं आता कि स्पर्श मात्र बुरा है। उसमें से दोष पैदा होने का डर नहीं रहता। वह सारी स्त्रियों में उसी भगवान को देखता है, जिसे व अपने में पाता है। . "ऐसे लोग हमने नहीं देखें, इसलिए यह मानना कि वे हों ही नहीं सकते, घमंड की निशानी है। इससे ब्रह्मचर्य की महिमा घटती है।......” (२६-६-४७) ... - २३-.......सबको अपनी कमजोरी पहचाननी चाहिए। जान-बूझकर उसे जो छिपाता है और वलवान की नकल करने जाता है, वह ठोकर खायेगा ही। इसलिए मैंने तो कहा है कि हरेक को अपनी मर्यादा खुद बांधनी चाहिए।
- मुझे नहीं लगता कि किशोरलाल भाई जिस चटाई पर स्त्री बैठी हो, उस पर बैठने से इनकार करेंगे। ऐसा हो तो मुझे ताज्जुब होगा। मैं तो ऐसी मर्यादा को समझ नहीं सकता। मैंने उनके मुंह से ऐसा कभी नहीं सुना। स्त्री की निर्दोष संगति की तुलना सांप के बिल से करना मैं तो अज्ञान ही मानता हूं। इसमें स्त्री-जाति का और पुरुष का अपमान है। क्या जवान लड़का अपनी मां के पास नहीं बैठेगा ? बहन के पास नहीं बैठेगा ? रेल में उसके साथ एक पटरी पर नहीं बैठेगा। ऐसे संग से भी जिनका मन चंचल होता हो, उसकी हालत कितनी दयाजनक मानी जायगी?
यह मैं मानता हूँ कि लोक-संग्रह के लिए बहुत कुछ छोड़ना चाहिए। मगर इसमें भी समझ से काम लेना होगा। यूरोप में नंगों का एक संघ है। उन्होंने मुझे इसमें खींचने की कोशिश की। मैंने साफ इन्कार कर दिया।
.......नंगों की मिसाल को मैं लोक-संग्रह की आवश्यकता में गिनूंगा। मगर लोक-संग्रह की दलील देकर मुझ पर दबाव डाला गया कि मैं छुआछूत मिटाने की बात छोड़ दूं। लोक-संग्रह की दृष्टि से नौ बरस की लड़की की शादी करने का रिवाज चालू रखने की बात कही गई है। लोक-संग्रह की खातिर दरिया पार जाने से रोका जाता था। ऐसी और भी कई मिसालें दी जा सकती हैं। मगर घर के कुएं में हम तेरें, डूब न मरें।
बन्धन ऐसे तो नहीं होने चाहिए कि जिनसे स्त्री-पुरुष का भेद हम भूल ही न सके। हमें याद रखना चाहिए कि हमारे अनेक कामों में इस फर्क के लिए कोई जगह नहीं है। दरअसल इस भेद को याद करने का मौका एक ही होता है, वह तब, जब काम सवारी करता है। जिन स्त्री-पुरुषों पर सारे दिन ही काम सवार रहता है, उनके मन सड़े हुए हैं। मैं मानता हूं ऐसे लोग लोक-कल्याण नहीं कर सकते। इन्सान की हालत आमतौर पर ऐसी नहीं होती। करोड़ों देहाती अगर सारे दिन इसी चीज का खयाल किया करें, तो वे किसी भी शुभ काम के लायक नहीं रह सकते । (१३-७-'४७)
महात्मा गांधी के पांच प्रयोगों का विस्तृत वर्णन ऊपर पाया है। इन प्रयोगों में स्त्रियों के साथ एक-स्थान में वास, एकशय्या-शयन, एकांत भाषण और स्त्री-स्पर्श होते रहे। सर्दी की मौसम में महात्मा गांधी को कभी-कभी कंपन होने लगता। वह बड़े जोरों से होता और कुछ समय तक रहता। उस समय जो समीप में होते, वे महात्मा गांधी के शरीर को अपने शरीर से सटा कर रखते, जिससे कि उनके कांपते हुए
१- ब्रह्मचर्य (दू० भा०) पृ० ६२-६३ २-वही पृ० ६५-६६
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