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भूमिका
की
मैथुन शब्द की व्याख्या इस प्रकार है: स्त्री और पुरुष का युगन मिथन कहलाता है। मिथुन के भाव-बिग्रेप अथवा कम-विशेष को मैथुन कहते हैं । मैथुन ही अब्रह्म है।
प्राचार्य पूज्यपाद ने विस्तार करते हुए लिखा है-मोह के उदय होने पर राग-परिणाम से स्त्री और पुरुप में जो परस्पर संस्पर्श की इच्छा होती है, वह मिथुन है। और उसका कार्य अर्थात् संभोग-क्रिया मैथुन है। दोनों के पारस्परिक सर्व भाव अथवा सर्व कर्म मैथुन नहीं, राग-परिणाम के निमित्त से होनेवाली चेष्टा मैथुन है ।
श्री अकलङ्कदेव एक विशेष बात कहते हैं-हस्त, पाद, पुद्गल संघट्टनादि से एक व्यक्ति का अब्रह्म सेवन भी मैथुन है। क्योंकि यहाँ एक व्यक्ति ही मोहोदय से प्रकट हुए कामरूपी पिशाच के संपर्क से दो हो जाता है और दो के कर्म को मैथुन कहने में कोई बाधा नहीं । उन्होंने यह भी कहा—इसी तरह पुरुष-पुरुष या स्त्री-स्त्री के बीच राग भाव से अनिष्ट चेष्टा भी अब्रह्म है।
उपर्युक्त विवेचन के साथ पाक्षिक सूत्र के विवेचन५ को जोड़ने से उपस्थ-संयम रूप ब्रह्मचर्य का अर्थ होता है: मन-वचन-काय से तथा कृत-कारित-अनुमति रूप से दैविक मानुषिक, तिथंच सम्बन्धी सर्व प्रकार के वषयिक भाव और कर्मों से विरति । द्रव्य की अपेक्षा सजीव अथवा निर्जीव किसी भी वस्तु से मैथुन-सेवन नहीं करना, क्षेत्र की दृष्टि से ऊवं, अघो अथवा तिर्यग लोक में कहीं भी मैथुन-सेवन नहीं करना, काल की अपेक्षा दिन या रात में किसी भी समय मंथन-सेवन नहीं करना और भाव की अपेक्षा राग या द्वेष किसी भी भावना से मंथन का सेवन नहीं करना ब्रह्मचर्य है। - महात्मा गांधी ने लिखा है-"मन, वाणी और काया से सम्पूर्ण इन्द्रियों का सदा सब विषयों में संयम ब्रह्मचर्य है । ब्रह्मचर्य का अर्थ शारीरिक संयम मात्र नहीं है बल्कि उसका अर्थ है-सम्पूर्ण इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार और मन-वचन-कर्म से काम-वासना का त्याग। इस रूप में वह आत्म-साक्षात्कार या ब्रह्म-प्राप्ति का सीधा और सच्चा मार्ग है।"
ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए सर्वेन्द्रिय संयम को आवश्यकता को जैनधर्म में भी सर्वोपरि स्थान प्राप्त है । वहाँ मन, वचन और काय से ही नहीं पर कृत-कारित-अनुमोदन से भी काम-वासना के त्याग को ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए परमावश्यक बतलाया है। स्वामीजी सर्वेन्द्रियजयविषय-जय को एक परकोट की उपमा देते हुए कहते हैं
शब्द रूप गन्ध रस फरस, भला मुंडा हलका भारी सरस। यो सं राग धेष करणो नाहीं, सील रहसी एहवा कोट माही॥
१–तत्त्वार्थसूत्र ७.११ और भाष्य :
मैथुनमब्रह्म
स्त्रीपुंसयोमिथुनभावो मिथुनकर्म वा मैथुनं तदब्रह्म २-तत्त्वार्थसूत्र ७.१६ सर्वार्थसिद्धि :
स्त्रीपुंसयोश्च चारित्रमोहोदये सति रागपरिणामाविष्टयोः परस्परस्पर्शनं प्रति इच्छा मिथुनम् । मिथुनस्य कर्म मैथुनमित्युच्यते। न सर्व ।
कर्म ।......स्त्रीपुंसयो रागपरिणामनिमित्तं चेष्टितं मैथुनमिति ३-तत्त्वार्थवार्तिक ७.१६.८:
एकस्य द्वितीयोपपत्तौ मैथुनत्वसिद्ध : -तथैकस्यापि पिशाचवशीकृतत्वात् सद्वितीयत्वं तथैकस्य चारित्रमोहोदयाविवृतकामपिशाच
वशीकृतत्वात् सद्वितीयत्वसिद्धे मैथुनव्यवहारसिद्धिः ४-तत्त्वार्थवार्तिक ७.१६.६ ५-पाक्षिकसूत्र :
से मेहुणे चउब्विहे पन्नत्त तंजहा–दव्वओ खित्तओ कालओ भावओ। दव्वओणं मेहुणे स्वेसु वा स्वसहमएस वा। खित्तओ मेहुणे
उड्ढलोए वा अहोलोए वां तिरियलोए वा । कालओ णं मेहुणे दिवा वा राओ वा । भावओ णं मेहुणे रागेण वा दोसेण वा - ६-ब्रह्मचर्य (श्री०) पृ०३
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