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शील की नव बाड़
तरह गुणों का बड़ा बोझ है'। । उपर्युक्त श्रामण्य (ब्रह्मचर्यवास) को ग्रहण करते समय सर्व पापों का त्याग कर मुमुक्षु को जिन महाव्रतों को ग्रहण करना पड़ता है। उनमें उग्र महाव्रत ब्रह्मचर्य का भी उल्लेख है। यह महाव्रत अब्रह्म की विरति स्प कहा गया है। इस तरह श्रामण्य (ब्रह्मचय) ग्रहण करते समय अन्य महाव्रतों के साथ महाव्रत ब्रह्मचर्य को ग्रहण करना उपर्युक्त उपस्थ-संयम रूप दूसरी कोटि के ब्रह्मचर्य का धारण करना है। महाव्रत ब्रह्मचर्य सर्व मैथन विरमण रूप होता है। उसके ग्रहण की प्रतिज्ञा की शब्दावलि इस प्रकार है:
. "हे भदन्त ! इसके बाद चौथे महाव्रत में मैथुन से विरमण करना होता है । हे भदन्त ! मैं सर्व मथुन का प्रत्याख्यान करता हूँ। देव सम्बन्धी, मनुष्य सम्बन्धी अथवा तियंच सम्बन्धी-जो भी मैथुन है मैं उसका स्वयं सेवन नहीं करूंगा, दूसरे से उसका सेवन नहीं कराऊँगा और न मथुन सेवन करनेवाला का अनुमोदन करूंगा । त्रिविध-त्रिविध रूप से मन, वचन और काया तथा करने, कराने और अनुमोदन रूप से मथुन सेवन का मुझे यावज्जीवन के लिए प्रत्याख्यान है । हे भदन्त ! मैंने अतीत में मैथुन सेवन किया, उससे अलग होता हूँ और पाप का सेवन करने वाली प्रात्मा का त्याग करता हूँ | मैं सर्व मैथुन से विरति रूप इस चौथे महाव्रत में अपने को उपस्थित करता हूँ।"
व्रत-परिपालन, ज्ञान-वृद्धि, कषाय-जय, स्वतंत्र वृत्ति की निवृत्ति के लिए यह आवश्यक होता है कि श्रामण्य ग्रहण कर श्रमण ब्रह्माधर्मगुरु के चरणों में रहे। इस उद्देश्य से गुरुकुलवास करने को भी ब्रह्मचर्य कहा है।
१-उत्तराध्ययन १६ : २५,३६ २-इन महाव्रतों का उल्लेख अनेक आगमों में है। देखिए दशवैकालिक ४.१-६:१०.१०-२५; उत्तराध्ययन १६.२६-३१; आचाराङ्ग ध्रु०
२.१५;स्थानांग ३८६; समवायांग ५ । संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है : इह खलु सव्वओ सव्वत्ताए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइयस्स सव्वओ पाणाइवायाओ वेरमणं मुसावाय-अदिण्णादाण-मेहुणपरिग्गहराईभोयणाओ वेरमणं । अयमाउसो अणगारसामाइए धम्मे पण्णत्ते । (औपपातिक सू० ५७) ३-(क) उत्तराध्ययन १६.३४ :
कावोया जा इमा वित्ती केसलोओ अ दारुणो।
टक्ख बभव्वयं घोरं धारेउं य महप्पणो ॥ ४-वही १६ : २६ :
विरई अबंभचेरस्स, कामभोगरसन्नुणा। ---- महत्वयं बभ, धारेवव्वं सुदकरंगाय
ला
सव्वाओ मेहूणाओ वेरमणं ६-(क) दशवकालिक ४.४ (ख) आचारांग श्रु० २.१५
कोरी पाने ७-(क) तत्त्वार्थसूत्र ६.६ भाष्य १० :
व्रतपरिपालनाय ज्ञानाभिवृद्धये कषायपरिपाकाय च गुरुकुलवासो ब्रह्मचर्यमस्वातन्यं गर्वधीनत्वं गुरुनिर्देशस्थायित्वमित्यर्थ च (ख) वही : ६.६ सर्वार्थसिद्धि :
स्वतन्त्रवृत्तिनिवृत्त्यर्थो वा गुरुकुलवासो ब्रह्मचर्यम् (ग) वही ६.६ तत्त्वार्थवार्तिक २३ : . ।
अस्वातन्त्र्यार्थ गुरौ ब्रह्मणि चर्यमिति । अथवा ब्रह्मा गुरुस्तस्मिंश्चरणं तदनुविधानमस्य अस्वातन्त्र्यप्रतिपत्त्यर्थ ब्रह्मचर्यमवतिष्ठते
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