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________________ भूमिका लगा। सुदर्शन ने अपने मन को मेरू की तरह दृढ़ कर लिया : ओ उपसर्ग मोटो उपनों, मन गमतो परीसोजाण । जब सेठ मन गाढो कियो, जाणेक मेरू समान ॥ स्वामीजी कहते हैं : गमतो परीसो अस्त्री तणो, सहिवो घणो दलभ । दृढ़ परिणामी पुरुष नें, सहिवो घणो सुलभ ॥ गमता अण गमता बेह, उपसर्ग उपजे आय। जब शर पुरुष साया मंडे कायर भागी जाय। सुदर्शन इस घोर अनुकूल परीषह के समय शील के गुणों का चिन्तन करने लगा : सेठ इसो मन चितवे, शील व्रत हो ब्रता में प्रधान । तिण शील थकी सुद्ध गति मिले, अनुक्रमें हो पामें मुगत निधान ॥ ग्रह नक्षत्र तारांना वृंद में, घणो सोभे हो मोटो जिम चंद। रत्रां में वैडूर्य मोटको, फूलां में हो मोटो फूल अरविद । - ज्यूं व्रतां में शील व्रत बडो॥ रत्नां रा आगर में समुद्र बडो, आभूषण में हो माथा रो मुकुट । श्रीमा वस्त्र मांहे क्षोम वस्त्र मोटको, नदियां मांहें हो सीता नो पट । इत्यादि शील व्रत में ओपमा, सूत्र में हो जिन भाषी बतीस । ए.'ब्रत चोखे चित्त पालसी, तिण री करणी हो जाणो विश्वावीस ॥ शील थकी संकट टले, शील थकी शीतल हुवे आग। शील थी सर्प न आभडे, शील थकी हो वाधे जस सोभाग॥ यशील थी विष अमृत हुवे, शील सेती हो देवे समुद्र थाग। मा वाघ सिंघ ढले शील थी, शील पाले हो तेहनो मोटो भाग ॥ शील थकी अनेक जीव उद्धरघा, कहितां कहितां हो त्यांरी नावें पारा at: इण शील थकी चका तिका, जाय पडिया हो नरक निगोद मझार ॥ इस तरह शील की महिमा का चिन्तन करते हुए सुदर्शन ने प्रतिज्ञा की :- "अभया जैसी कितनी ही स्त्रियां क्यों न मा जायं, मैं शील से अणु मात्र भी दूर नहीं होऊंगा। इन्द्र की अप्सरा भी क्यों न आये, मैं धर्म की टेक नहीं छोड़ सकता। यदि मेरा इस उपसर्ग से उद्धार हुमा तो मैं घर छोड़ कर श्रामण्य ग्रहण करूंगा-"इण उपसर्ग थी हूं बचूं, तो लेतूं संजम भार।" . प्रभया और कामातुर हो गयी। सुदर्शन मौन ध्यान में लीन रहा। अभया ने सुदर्शन को गात्र-स्पर्श से जकड़ लिया, पर सुदर्शन जरा भी डिगा नहीं। उसकी मनःस्थिति ठीक वैसी ही रही, जैसे मानो दो वर्ष के बच्चे को माता ने स्पर्श किया हो : सेठ ने अंग सूं भीडियो, पिण डिग्यो नहीं तिलमात । दोय मास तणा बालक भणी, जाणेक फरस्यो मात ॥ सेठ सुदर्शन सोचने लगा : हिवे सेठ करे रे विचार, एकाई होय जासी कामणी जी। ए आपेइ जासी हार, ए काई करेला माहरो भामणी जी ॥ vi wity ए आय बणी छे मोय, ते कायर हुवां किम छुटिये जी। होणहार जिम होय, मो अडिग में कहो किम लंटिये जी ॥ eringemeraniamine aanemast Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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