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भूमिका
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भगवान महावीर ने कहा है इन्द्रियों और मन के विषय (शब्दादि) रागी मनुष्य को ही दु:ख के हेतु होते हैं। ये ही विषय वीतराग को कदाचित् किंचित् मात्र भी दुःख नहीं पहुंचा सकते। शब्द, रूपा गंध, रस, स्पर्श और भाव-इन विषयों से विरक्त पुरुष . शोक रहित होता है। .....कामभोग-शब्दादि समभाव के हेतु नहीं हैं और न विकार के हेतु हैं। किन्तु जो उनमें परिग्रह-राग अथवा द्वेष करता है, वही मोह-राग-द्वेष के कारण विकार उत्पन्न करता है । जो इन्द्रियों के शब्दादि विषयों से विरक्त है, उसके लिए ये सब विषय मनोज्ञता या अमनोज्ञता का भाव पैदा नहीं करते । जो वीतराग है वह सर्व तरह से कृतकृत्य है..." 20 1 3
। स्वामीजी ने इसके मर्म का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है "इन्द्रियों के विकार राग-द्वेष हैं। वे इन्द्रियों और उनके गुणों से अलग हैं। .. इन्द्रियाँ शब्दादि सुनती-देखती आदि हैं । राग होने पर शब्दादिक प्रिय लगते हैं । शब्दादिक को यथातथ्य जानने-देखने से पाप नहीं लगता। पाप तो राग-द्वेष पाने से लगता है. । राग-द्वेष ही विषय-विकार हैं। राग और द्वेष के क्षय होने से वीतराग-गुण की प्राप्ति होती है।"
इसी बात को स्वामीजी ने दूसरे शब्दों में इस प्रकार कहा है : ....
"पांचों इन्द्रियाँ और राग-द्वेष के स्वभाव भिन्न-भिन्न हैं । इन्द्रियों के स्वभाव में दोष नहीं। कषाय और राग-द्वेष के परिणाम बुरे हैं। शब्दादिक काम और भोग हैं; वे समभाव के हेतु नहीं और न वे असमभाव के हेतु हैं । इनसे विकार की उत्पत्ति नहीं होती । शब्दादिक कामभोगों पर राग-द्वेष लाना ही विकार, विषय और कषाय हैं।"
.. "काम-भोग अनर्थ के मूल नहीं हैं। उनमें गृद्धि भाव अनर्थ का मूल है। इसी तरह इन्द्रियाँ भी शत्रु नहीं हैं । शत्रु तो शब्दादिक से रागद्वेष के परिणाम हैं। यदि इन्द्रियाँ ही पाप की हेतु हों तब तो वे घंटें वसा उपाय करना ही धर्म हुआ।
पादरी लोग ब्रह्मचारी रहने के लिए अपनी इन्द्रिय को काट लेते थे। इस पर टोका करते हुए टॉल्स्टॉय ने लिखा है : नारी 2. "खासकर अपनी तथा दूसरों की इन्द्रियों को काटना तो सच्ची ईसाइयत के साफ़-साफ़ विपरीत है । ईसा ने ब्रह्मचर्य के पालन का उपदेश
११-उत्त० ३२ : १००,४७,१०१, १०६, १०८ २-भिक्षु-ग्रन्थ रत्नाकर (खगडः १): इन्द्रियवादी री चौपई ढाल १३:४१-४२..
.. ! इंदरयां रा विकार राग धेष छे, ते इंदरयां रा गुण थी न्यारा रे।
R EET इंदरयां तो शब्दादिक सुणे देखले, शब्दादिक राग सूं लागे प्यारा रे ॥ शब्दादिक जथातथ जाण्यां देषीयां, पाप न लागे लिंगारो रे। mistan
. पाप लागे छे राग धेष आणियां, राग धेप छे विषय विकारो रे ॥ Di
g in . ........ ३-वही ढाल १२.३७-३६ :
पांचं इंदरयां ने राग धेष रो रे, सभाव जूओरछे ताम रे।
इंदरयां रा सभाव मांहें अवगुण नहीं रे, काय तणा खोटा परिणाम रे ॥ ma ri 17. काम में भोग शब्दादिक तेह थी रे, समता नहीं पामें जीव लिगार रे।
... असमता पिण नहीं पामें छे एहथी रे, याँ सू मूल न पामें जीव विकार रें। जो राग ने धेष आणे त्यां ऊपर रे, ते हिज विकार विषय कपाय रे ।
T ian and ते कह्यो छे उत्तराधेन बत्तीस में रे, सो उपरली पहली गाथा माय रे |
niratiotheraic ... वही ढाल १४:३७REATE
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.... काम में भोग अनर्थ रा मूल नाही, त्यां सं प्रिध पणे अनर्थ रो मूल जाणो। RE
E T ज्यं इंदरयां पिण सत्र छ नाही, सत्र तो शब्दादिक सं राग पिछांगो ॥ icati o n mind डाल दो जो इंद्रयां सावध हुवे, तो इन्द्री घटे ते करणो उपाय । जे इन्द्रयां ने सावद्य कहे, तिणरी सरधा रो ओहीज न्याय ॥
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