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कथा – १४ :
सिंह गुफावासी यति
[ इसका संबंध ढाल २ गाथा ७ ( पृ० १३ ) के साथ है ]
उसकी भाव का नाम लाइन देवी था। इससे
पाटलिपुत्र नगर में नन्द राजा का प्रधान मंत्री शकढाल था। बड़े का नाम स्थूलभद्र था और छोटे का नाम श्रीवक
उसको दो पुत्र हुए। श्रीयक नंद राजा के यहाँ अंगरक्षक के रूप में काम करता था। वह राजा का अत्यन्त विश्वासपात्र था। स्थूलभद्र बड़ा बुद्धिशाली था किन्तु वह कोशा नामकी एक गणिका के प्रेम में फँस गया । यहाँ तक कि अपने घर को छोड़कर वह उस गणिका के घर में ही रहने लगा । इस प्रकार प्रायः बारह वर्ष निकल गये स्थूलभद्र ने गणिका के सहवास में प्रचुर धन खोया । घटनावश राजा के कोप के कारण शकडाल-मंत्री मार डाला गया।
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भद्र को
राजा नंद ने मंत्री पद ग्रहण के लिए स्थूल'बुला भेजा। जब उसने आकर देखा कि उसका पिता, मंत्री शकडाल मारा गया तो वह बड़ा खिन्न हुआ। वह सोचने लगा – “मैं कितना अभागा हूँ कि वेश्या के मोह के कारण मुझे पिता की मृत्यु की घटना तक का पता नहीं चला ! उनकी सेवा सुश्रूषा करना तो दूर रहा, अंतिम समय में में उनके दर्शन तक नहीं कर सका। धिक्कार है मेरे जीवन को ।" इस प्रकार शोक करते-करते स्थूलभद्र का हृदय संसार से उदासीन हो गया। मंत्री पद स्वीकार न कर, वह संभूति विजय नामक आचार्य के पास गया और मुनित्व धारण कर लिया।
जब यह खबर कोशा गणिका के पास पहुंची, उसका हृदय दुःख से भग्न हो गया। अब उसके लिए धीरज के सिवा कोई दूसरा चारा नहीं था।
एक बार वर्षा काल के समीप आनेपर शिष्य आचार्य संभूति के पास आकर चातुर्मास की आज्ञा मांगने लगे। उस समय एक मुनि ने सिंह की गुफा के द्वारपर उपवास करते हुए चौमासा बिताने का निश्चय किया। दूसरे मुनि ने दृष्टिविष सर्प के बिल के पास चौमासा करने का निश्चय किया। तीसरे मुनि ने कुएँ की एरण पर कायोत्सर्ग-ध्यान में चातुर्मास व्यतीत करने का निश्चय किया। जब मुनि स्थूलिभद्र के आज्ञा लेने का अवसर आया तो उन्होंने नाना कामोद्दीपक चित्रों से चित्रित, अपनी पूर्व परिचिता सुन्दरी नायिका कोशा गणिका की चित्रशाला में परसयुक्त भोजन करते हुए चातुर्मास करने की आज्ञा मांगी। आचार्य ने आज्ञा प्रदान की, सब साधुओं ने अपने-अपने चातुर्मास के स्थान की ओर बिहार किया। मुनि स्थूलिभद्र कोशा गणिका के घर पहुँचे । स्थूलिभद्र के प्रति कोशा गणिका का आंतरिक प्रेम था । इसलिए दीर्घ काल बीत जाने पर भी वह उन्हें न भूला सकी थी। उनके वियोग में वह जर्जरित हो गई थी । चिरकाल के बाद उनको वापस उपस्थित हुए देखकर उसका रोम रोम हर्षित हो रहा था। मुनि स्थूलभद्र कोशा की आज्ञा लेकर उसकी चित्रशाला में चातुर्मास के लिए ठहरे । यद्यपि उस समय स्थूलभद्र मुनि-वेष में थे, फिर भी गणिका को बड़ी आशा बँधी । उसने सोचा- “मेरे यहाँ चातुर्मास करने का और क्या अभिप्राय हो सकता है ? इसका कारण उनके हृदय में मेरे प्रति रहा हुआ सूक्ष्म मोह भाव ही है।" यह सोचकर वह मुनि को पूर्व-क्रीड़ाओं का स्मरण कराने लगी । वह नाना प्रकार के शृङ्गार कर तथा उत्तम से उत्तम वस्त्राभूषण पहनकर उनको अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयत्न करने लगी । परन्तु गणिका की नाना प्रकार की चेष्टा से भी मनि स्थूलभद्र किंचित् भी विचलित नहीं हुए। वे सदा धर्म - ध्यान में लीन रहते ।
१ - उत्तराध्ययन सूत्र अ० २ गा० १७ श्री नेमिचन्द्रीय टीका के आधार पर ।
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