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भूमिका
१७
मासान होगा। इसी प्रकार ब्रह्मवारी मनुष्य का जीवन त रहता है पर उसके सामने वाली विशाल कल्पना के हिसाब से सारा संयम उसे अल्प ही जान पड़ता है। इन्द्रिय-निग्रह में करता है, ऐसा कर्तरि प्रयोग न रहकर इन्द्रिय-निग्रह किया जाता है, यह कर्मणि प्रयोग बच जाता है । नैष्ठिक ब्रह्मचर्य पालन करनेवाले की श्राँखों के सामने कोई विशाल कल्पना होनी चाहिए, तभी ब्रह्मचर्यमासान होता है। ब्रह्मचर्य को में विशाल ध्येयवाद और तदयं संयमाचरण कहता हूँ"
श्री मशरूवाला इसी विचार को और भी स्पष्ट रूप से रख पाये हैं: जॉन डाल्टन के बुढ़ापे में किसी ने उनसे पूछा बाप किस उद्देश्य से विवाहित रहे ' ने इस से विचार में पड़ गये। थोड़ी देर बाद बोले – 'भाई, आज ही आपने यह प्रश्न सुझाया है। मेरा जीवन विज्ञान के अध्ययन में कैसे बीत गया, इसका मुझे पता ही नहीं चला। मेरे मन में यह विचार ही कभी पैदा नहीं हुआ कि विवाह किया जाय या न किया जाय, श्रथवा मैं विवाहित हूं या अविवाहित ।' "हमारे पुराणों में अत्रि ऋषि और सती धनसूया की कथा भी ऐसी ही बादर्शयाली है। ये विवाहित दम्पति थे, लेकिन ऋषि कायनकालने पास में और सती की युवावस्था ऋषि के लिए सुविधाएं जुटाने और काम-काज में ऐसी बीत गई कि बुढ़ापा ब गया,इसका उन्हें पता नहीं चला। पुराणकार कहते हैं कि एक बार अत्रि ऋषि अपने श्रध्ययन में लगे हुये थे, इतने में दिये में तेल खत्म हो गया। उन्होंने तेल मांगने की की इच्छा से ऊपर देखा, तो थकावट के कारण अनसूया की श्राँख लगी मालूम हुई । श्रत्रि ने जब अनसूया की तरफ ध्यान से देखा तो वे बूढ़ी जान पड़ीं। इसलिए उन्होंने अपनी दाढ़ी की तरफ देखा, तो वह भी सफेद दिखाई दी। तारुण्य अवस्था कब चली गई, इसका अत्रि को पता ही नहीं चला। इस कथा में काव्य की श्रतिशयोक्ति जरूर होगी, लेकिन ब्रह्मचारी के लिए श्रभ्यासपूर्ण जीवन बिताने का एक उत्तम श्रादर्श बताया गया है, और डाल्टन की अनुभव वाणी का यह कथा समर्थन करती है २ ।"
श्री विनोबाजी और मशरूवाला ने जो विचार दिया है, वह ब्रह्मचर्य के क्षेत्र में बहुत पुराना है। निशीथ सूत्र की चूर्णि में निम्न कथा, मिलती है, जो इस विषय को स्वयं स्पष्ट कर देती है :
वह
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"एक गृहस्य लड़की निल्ली और मुखपूर्वक रहती थी मर्दन उन स्नान विलेपनादि पारीरिक शृंगार में परायण थी। बनाव- गार के कारण उसके मन में मोह जागृत हुआ। वह अपनी धाय मां से बोली - "मेरे लिये कोई पुरुष ले श्रावो ।" उस घाय मां ने उसकी मां को जाकर कहा। मां ने उसके पिता को कहा। पिता ने अपनी पुत्री को बुला कर कहा - " पुत्री ! ये दासियां अपना सब धन अपहरण करके ले जाती हैं, अतः तुम स्वयं कोठे की देखरेख करो। उसने कहा- ठीक, और कोठे के देख-रेख का काम करने लगी। वह किसी को भोजन देती, किसी को उसकी तनख्वाह वृत्ति और किसी को चावल देती। कितना कोठार में प्राया है, कितना व्यय हुआ है, इस प्रकार दिनभर काम में व्यतीत हो जाता। वह दिनभर के काम से खूब थक जाती और अपनी शय्या पर आकर सो जाती। एक दिन घाय मां ने कहा- "बेटी
पुरुष
लाऊं ?" वह बोली - "मुझे पुरुष से क्या काम ? अब मुझे सोने दो" ।
" इस प्रकार गीतार्थी के भी दिनभर सूत्रार्थ में लगे रहने से, स्वाध्याय में तन्मय रहने से काम संकल्प उत्पन्न नहीं होते ।"
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि किसी ध्येय में रात-दिन सने रहने से ब्रह्मचर्य का पालन एक महान चीज बन जाती है। विनोबाजी ने सब से विशाल ध्येय परमेश्वर का साक्षात्कार करना कहा है। वे लिखते हैं-
११ - विनोबा के विचार (दू० भा० च० आ०) पृ० १६०-६१.
२- स्त्री-पुरुष मर्यादा पृ० २४-२६
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३- नि० गा० ५७४ चूर्णि :
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तस्स य अभंगुव्वट्टण-गृहाण-विलेवणादिपरायणाए मोहुभयो । एग्गस्स कुटुंबिगस्स घूया णिक्कम्मवावारा मुहासणत्था अच्छति । अम्मात भगति । आनंदि मे पुरिसं सीए अम्मधातीय माउए से कहिये। सीए वि पिठो पिडा वाहिरचा भणिया। पुत्तिए ! एताओ दासीओ सव्वधणादि अवहरंति, तुमं कोठायारं पडियरस, तह त्ति पडिवन्नं, सा-जाब अगणस्स भत्तयं देवि, गण विधि अस्त्र संदला, अस आर्य देक्खति, अगगल्स वयं एवमादिकिरिया बाबा दिवस गतो । रणी विणा अम्मघातीते भणिता – आणेमि ते पुरिसं ? साभणेति सुत्तपोरिसि दतस्स अतीव तत्थे वावडस्स कामसंकप्पो ण जायइ ।
मे पुरिसेण कज्जं, हिं लहामि भणि" च "काम ! जानामि ते
सा अतीव खिराणा एवं गीयत्थस्स वि मूल "सिलोगो ॥
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