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शील की नव बाड़
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और अनाकार उपयोग उनका लक्षण होता है। सिद्ध केवलज्ञान से संयुक्त होने से सर्वभाव, गुणपर्याय को जानते हैं और अपनी अनन्त केवल कि से सर्वभाव देखते हैं। न मनुष्य के ऐसा सुख होता है और न सब देवों के, जैसा कि अव्यावाध गुण को प्राप्त सिद्धों के होता है। सिद्धों का सुख अनुपम होता है। उनकी तुलना नहीं हो सकती। निर्वाण-प्राप्त सिद्ध सदा काल तृप्त होते हैं। वे शाश्वत सुख को प्राप्त कर प्रया. बाधित सुखी रखते हैं। सर्व कार्य सिद्ध होने से वे सिद्ध हैं, सर्व तत्त्व के पारगामी होने से बुद्ध हैं, संसार-समुद्र को पार कर चके होने से पारंगत हैं, हमेशा सिद्ध रहेंगे इससे परंपरागत हैं। वे सब दुखों को छेद चुके होते हैं। वे जन्म, जरा और मरण के बन्धन से विमुक्त होते हैं। वे अव्याबाध सुख का अनुभव करते हैं और शाश्वत सिद्ध होते हैं। अनन्त सुख को प्राप्त हुये वे अनन्त सुखो वर्तमान अनागत सभी काल में से ही सुखी रहते हैं।"
तीसरे पद में प्राचार्य की वन्दना की जाती है। जो अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह का प्राचरण दें, उन्हें प्राचार्य कहते हैं।
___ चौथे पद में उपाध्यायों को नमस्कार किया जाता है । जो अज्ञान-अन्धकार में भटकते हुए प्राणियों को विवेक-विज्ञान देते हैं शास्त्रज्ञान देते, उन्हें उपाध्याय कहते हैं।
जो पांच महाव्रत, पाँच समिति और तीन गुप्तियों की सम्यक् अाराधना करते हैं, उन्हें साधु कहते हैं। पांचवें पद में ऐसे साधुओं को नमस्कार किया जाता है। इसके उपरान्त चतुर्विशतिस्तव में सिद्धों की स्तुति, वन्दना और नमस्कार किया जाता है :
एवं मए अभिथुआ, विहुय-रयमला पहीण-जरमरणा । .
चउवीसं पि जिणवरा, तित्थयरा मे पसीयंतु ॥ . कित्तिय-वंदिय-महिया, जे ए लोगस्स उत्तमा सिद्धा । म porape
आरग-बोहिलाभ, समाहि-वरमुत्तमं दितु ॥ चंदेस निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासरा ।
सागरवरगंभीरा, सिद्धा सिद्धि मम दिसंतु ॥ -जिनकी मैंने स्तुति की है, जो कर्मरूप धूल के मल से रहित हैं, जो जरा-मरण दोनों से सर्वथा मुक्त हैं, वे अन्तः शतुनों पर विजयपानेवाले धर्मप्रवर्तक चौबीसों तीर्थकर मुझ पर प्रसन्न हों।
-जिनकी इन्द्रादि देवों तथा मनुष्यों ने स्तुति की है, वन्दना की है, पूजा-अर्चा की है, और जो अखिल संसार में सबसे उत्तम हैं. वे सिद्ध-तीर्थकर भगवान मुझे आरोग्य-सिद्धत्व अर्थात् प्रात्म-शान्ति, बोधि–सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय का पूर्ण लाभ, तथा उत्तम समाधि प्रदान करें।
--जो अनेक कोटाकोटि चन्द्रमामों से भी विशेष निर्मल हैं, जो सूर्यों से भी अधिक प्रकाशमान हैं, जो स्वयंभरमण जैसे महासमद के समान गम्भीर हैं, वे सिद्ध भगवान मुझे सिद्धि अर्पण करें, अर्थात् उनके पालम्बन से मुझे सिद्धि--मोक्ष प्राप्त हो।
इस तरह जैन धर्म में भी साधक के लिए आवश्यक है कि वह रोज मन्त्र-स्मरण, प्रार्थना, उपासना करे।
२६-ब्रह्मचय आर व्ययवादगार imms संत विनोबा ने दुष्कर ब्रह्मचर्य सुकर कसे हो जाता है-इस पर एक विचार, बार-बार दिया है, वह इस प्रकार है :
"अपने अनभव से मेरा यह मत स्थिर हुमा कि यदि आजीवन ब्रह्मचर्य रखना है, तो ब्रह्मचर्य की कल्पना अभावात्मक (Negative) नहीं होनी चाहिए। विषय-सेवन मत करो, कहना प्रभावात्मक प्राज्ञा है ; इससे काम नहीं बनता। सब इन्द्रियों की शक्ति को प्रात्मा में खर्च करो, ऐसी भावात्मक (Positive) प्राज्ञा की आवश्यकता है। ब्रह्मचर्य के सम्बन्ध में, यह मत करो, इतना कहकर काम नहीं बनता। यह करो. कहना चाहिए। 'ब्रह्म' अर्थात् कोई भी बृहत् कल्पना। कोई मनुष्य अपने बच्चे की सेवा उसे परमात्मस्वरूप समझ कर करता है और वह इच्छा रखता है कि उसका लड़का ससुरुष निकले, तो वह पुत्र ही उसका ब्रह्म हो जाता है। उस बच्चे के निमित्त से उसका ब्रह्मचर्य १-ओपपातिक सू० १७८-१७६
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