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शील की नव बोड़
घणे आहारे विस चढ़े घगेंज फाटे पेट । अति आहार थी विर्षे वर्षे, घणोंइज फाटें पेट । . . धांन अमामौ अरतां हांडी फूटे नेट ॥ २ ॥ धांन अमाउ उरवां, हांडी. " फाटें . नेट ॥ ३ ॥
सर्व गाथाएं बिल्कुल भिन्न हैं। कुंडरीक का शास्त्रीय उदाहरण सामान्य है । जिनहपंजी की द्वितीय गाथा का चौथा चरण 'यो गुण धणाए' स्वामीजी की ३८ वीं गाथा में अवतरित है।
... श्री जिनहर्ष रचित ढाल में २ दोहे और ४ गाथाएं हैं। स्वामीजी की कृति में ४ दोहे और गाथाएं हैं। दोनों कृतियों का एक दोर मिलता है:
अंग विभूपा ज कर ते संजोगी होइ। सरीर विभूषा जे करें, ते संजोगी होय । - ब्रह्मचारी तन सोभवै तिण कारण नवि कोइ ॥२॥ ब्रह्मचारी तन सोमवे, ते कारण नहीं कोय ॥३॥
तीन गाथाओं में शब्द-साम्य इस प्रकार है : शोभा न करै देहनी न करे तन सिंणगार । ' सोभा न करणी देहनी रे लाल,नहीं करणो तन सिणगारा ब्रह्मचारी रे॥ ऊगटणा पीठी वलीन करे किण ही वारो रे।
पीठी उगटणों करणी नहीं रे लाल, मरदन नहीं करणो लिगार । या मणि चेतन सणि तूं मोरी वीनती तो ने सीप कह हितकारो रे सु०॥
ए नवमी बाड़ ब्रह्म वरत नी रे लाल ॥१॥ उन्हा ताढा नीर सुं न करे अंग अंघोल ।
ठंडा उन्हा पाणी थकी रे लाल, मुल न करणो अंगोल । । कैसर चंदन कंकमै पात न करइ पोलो रे सु०॥१॥ केसर चंदण नहीं चरचणा रेलाल, दांत रंगे न करणा चोल ब्रिए घणमोला ने उजला न करे वस्त्र वणाव ।
बहु मोलां में उजला रे लाल, ते वस्त्र में पेंहरणा नाहि । ७॥ घाते काम महा बली चौथा व्रत ने थावौ रे मु० ॥२॥ टीका तिलक करणा नहीं रे लाल; ते पिण नवीं बारेमाहिए० ॥३॥ कांकड कुंडल मुंदडी मोला मोतीग हार पहिरै नहीं । । कांकण कुंडल में मंदडी रे लाल, वले माला मोती में हार ब०॥ साभा भगी जे थायै व्रतधारो रे 'मु० ॥३॥ . ते ब्रह्मचारी पहर नहीं रे लाल, वले गेंहणा विवध परकार बि.ए ॥ ढाल-११ । जिनहर्षजी की कृति में इस ढाल के आदि में दोहे नहीं हैं। गाथाएँ ६ हैं। स्वामीजी की कृति में ५ दोहे और . १३ गाथाएं हैं।
दोनों रचनात्रों की इस ढाल का विषय ही पृथक्-पृथक् है। जिनहर्षजी ने इस ढाल में शील की महिमा वर्णित की है जब कि स्वामीजी ने दसवें कोट का वर्णन किया है। जिनहर्ष जी ने नौ बाड़ों पर ही प्रकाश डाला है, जब कि स्वामीजी ने इस ढाल में उत्तराध्ययन में वर्णित दसवें समाधिस्थान का कोट रूप में सुन्दर वर्णन किया है । - कुल मिलाकर स्वामीजी ने जिनहर्षजी के २५ दोहों में से २१ और ७१ गाथानों में से २४१ का उपयोग किया है। २५ दोहे मौर १४२१ गाथाएँ स्वामीजी की अपनी हैं।..: - स्वामीजी की रचना ठेठ मारवाड़ी में है। जिनहर्णजी के उक्त दोहे और गाथानों में शाब्दिक परिवर्तन कर उन्हें सरल करते हुए स्वामीजी ने ठेठ मारवाड़ी भाषा का रूप देकर अपनाया है ।..
.. ३७-प्रस्तुत संस्करण के विषय में काम कर स्वामीजी की इस'कृति के कई संस्करण पहले निकल चुके हैं। संवत् १९६२ में स्वर्गीय श्री राय सेताबचन्दजी नाहर बहादुर की मार से 'ज्ञानावली' नाम से एक ढाल-संग्रह प्रकाशित हुमा था, जिस के प्रथम खण्ड में इस कृति को प्रकाशित किया गया था। इस पुस्तक की तीसरा पावृति संवत् १९६६ में प्रकाशित हुई थी। बाद में चुरू के मणोतों की ओर से जो प्रकाशन हुए, उनमें भी यह कृति प्रकाशित की गई थी। प्रोसवाल प्रेस द्वारा प्रकाशित "वैराग्य मञ्जरी' में भी यह कृति प्रकाशित हुई और इसके कई संस्करण हो चके हैं। ये सभी प्रकाशन मूल मात्र रहे। सानुवाद प्रकाशन यह प्रथम ही है।
- इस प्रकाशन, में तेरापत्यः सम्प्रदाय के द्वितीय प्राचार्य श्री भारमलजी स्वामी की हस्तलिखित प्रति के आधार से धारी हुई प्रतिक उपयोग किया गया है। पूर्व प्रकाशनों की मूल पाठ विषयक अनेक भूलें इस प्रकाशन से दूर हो पायेंगी।
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