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भूमिका समज
बोधायन ने यह भी कहा है-"वास्तव में पाश्रम एक है-गृहस्थाश्रम'।"
यहाँ संक्षेप में यह भी जान लेना आवश्यक है कि ब्रह्मचर्य पाश्रम में प्रवेश किस तरह होता था और ब्रह्मचारी के विशेप धर्म व कर्तव्य क्या थे। बालक प्राचार्य से कहता-मैं ब्रह्मचर्य के लिए आया है। मुझे ब्रह्मचारी करें। आचार्य विद्यार्थी से उसका नाम पूछता । इसके बाद प्राचार्य उपनयन करते-उसे अपने नजदीक लेते । और उसके हाथ को ग्रहण कर कहते-तुम इन्द्र के ब्रह्मचारी हो, अग्नि तुम्हारा प्राचार्य है, मैं तुम्हारा प्राचार्य हैं। इसके बाद प्राचार्य उसे भूतों को अर्पित करते । आचार्य शिक्षा देते-जल पीनो, कर्म करो, समिधा दो, दिन में मत सोप्रो, मघ मत खाओ। इसके बाद आचार्य सावित्री मंत्र का उचारण करते। इस तरह छात्र ब्रह्मचारी अथवा ब्रह्मचर्याश्रम में प्रतिष्ठित होता। लाः ब्रह्मचारी गुरुकुल में वास करता । प्राचार्य को शुश्रूषा और समिधा-दान आदि सारे कार्य करने के बाद जो समय मिलता उसमें वह वेदाभ्यास करता। उसे भूमि पर शयन करना पड़ता। ब्रह्मचर्यपूर्वक रहना पड़ता। ब्रह्मचर्य उसके विद्यार्थी जीवन का सहचर व्रत था।
वेदाध्ययन-काल साधारणत: एक परिमित काल था। इसकी आदर्श अवधि १२ वर्ष की कही गयी है पर कोई एक वेद का अध्ययन करने के बाद भी गुरुकुल वास से वापिस घर जा सकता था। वैसे ही कोई चाहता तो १२ वर्ष से अधिक समय तक भी वेदाध्ययन चला सकता था। ये सब विद्यार्थी ब्रह्मचारी कहलाते थे। इसके अतिरिक्त नैष्ठिक ब्रह्मचारी भी होते । वे जीवन-पर्यन्त वेदाभ्यास का नियम लेते और 'आजीवन ब्रह्मचर्यपूर्वक रहते। नैष्ठिक ब्रह्मचारी की परम्परा स्मृतियों से प्राचीन नहीं कही जा सकती हालांकि इसका वीज उपनिषद काल में देखा जाता है।
वेदाध्ययन से मुक्त होने पर विद्यार्थी वापिस अपने घर आता था। वह स्नातक कहलाता । अब वह गार्हस्थ्य के सर्व भोगों को भोगने के लिए स्वतन्त्र था । वेदाध्ययन काल से मुक्त होने पर विवाह कर सन्तानोत्पत्ति करना उसका आवश्यक कर्त्तव्य होता था।
ऊपर के विस्तृत विवेचन का फलितार्थ यह है : 4 (१) वैदिक काल में वानप्रस्थ और संन्यास प्राश्रम नहीं थे। गार्हस्थ्य प्रधान था । बाल्यावस्था में छात्र गुरुकुल में वास कर वेदाभ्यास करते । इसे ब्रह्मचर्य कहा जाता और वेदाभ्यास करने वाले छात्र ब्रह्मचारी कहलाते थे। चिया (२) ब्रह्मचर्य आश्रम का मुख्य अर्थ है गुरुकुल में रहते हुए ब्रह्म-वेदों की चर्या-अभ्यास। वेदाभ्यास काल में अन्य नियमों के साथ विद्यार्थी के लिए ब्रह्मचर्य का पालन भी अनिवार्य था। परन्तु इस कारण से वह ब्रह्मचारी नहीं कहलाता था, वेदाभ्यास के कारण ब्रह्मचारी कहलाता था। यह इससे भी स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्य ग्रहण करते समय भी "सर्व मैथुन विरमण" जैसा कोई व्रत न छात्र लेता था और न आचार्य दिलाते थे।
..(३) वैदिक काल में वानप्रस्थ और संन्यास की कल्पना न रहने से मुख्य आश्रम गार्हस्थ्य ही रहा। उस समय प्रजोत्पत्ति पर विशेष बल दिया जाता रहा। इस परिस्थिति में जीवन-व्यापी 'सर्व अब्रह्म विरमण' की कल्पना वेदों में नहीं देखी जाती।
(४) उपनिषद् काल में क्रमश: वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम सामने आये। इस व्यवस्था में उत्सर्ग मार्ग में संन्यास का स्थान अंतिम रहा । अतः सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य जीवन के अन्तिम चरण में साध्य होता और वानप्रस्थ सपत्नीक भी होता था।
(५) उपनिषद् काल में 'यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रव्रजेत्'-इस विकल्प पक्ष ने ब्रह्मचर्य पाश्रम से सीधा संन्यास आश्रम में जा सकने का मार्ग खोल कर जीवन-व्यापी पूर्ण ब्रह्मचर्य के पालन की भावना को बल दिया पर धर्मसूत्रों के काल में इस व्यवस्था पर आक्रमण हुए। वानप्रस्य और संन्यास को अवेदविहित कह कर उन्हें बहिष्कृत किया जाने लगा। गार्हस्थ्य आश्रम ही एक मात्र आश्रम है' कह कर गार्हस्थ्य को पुनः प्रतिष्ठित करने से सर्व प्रब्रह्म विरमण की भावना पनप न पाई। १-यौधायन धर्मसूत्र २.६.२६-३१ : - ऐकाश्रम्यं त्वाचार्या अप्रजननत्वादितरेषाम् तत्रोदाहरन्ति । प्राहादि कपिलो नामासर आस स एतान्भेदांश्चकार देवैः स्पर्धमानस्तान्म
नीषी नाद्रियेत । -शतपथ ११.५.४.१-१७ ३–छान्दोग्य उपनिषद् ८.१५.१ :
आचार्यकुलाद्वदमधीत्य यथाविधानं गुरोः कातिशेषेणाभिसमावृत्य । -४-History of Dharmasastra Vol. 11 Part 1 pp. 319-
352
0५-छान्दोग्य उपनिषद् २.२३.१
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