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भूमिका
न देख चारों पर एक साथ बाहर निकाल अत्यन्त तेज गति से दौड़ता हुआ वह मयंगतीर द्रह के समीप पहुँच उसमें प्रविष्ट हो सम्बन्धियों के साथ मिल कर सुखी हुप्रा । इस कथा का उपनय यह है कि जो ब्रह्मचारी अपनी इन्द्रियों को वश में नहीं रखता, विषयार्थी और प्रमादी होता है, वह गुप्तेन्द्रियविषयी कछुए की तरह प्रात्मार्थ से पतित हो दुःखित होता है । जो मुमुक्षु गुप्तेन्द्रिय होता है तथा अप्रमादी कछुए की तरह अपनी इन्द्रियों को वश में रखता है और विषयों को पास में नहीं फटकने देता, वह आत्मार्थ को साथ कर सुखी होता है ? ।
इसकी तुलना गीता के निम्न श्लोक में है :
यदा संहरते चायं कर्मोऽङ्गानीव सर्वशः ।
-इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्तस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥ २५८
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दूसरी कथा अश्व की है । हत्यिसीस नामक नगर में अनेक धनाढ्य वणिक रहते थे। एक बार वे सामुद्रिक यात्रा कर लौटें, तब उन्होंने वहाँ के राजा कनककेतु को बहुमूल्य भेंट उपहार में दी । राजाने प्रसन्नता पूर्वक भेंट स्वीकार कर पूछा - "इस बार की यात्रा में तुम लोगों ने कौन सो पाश्चर्य की वस्तु देखी, उसे मुझे बताओ वणिकों ने कहा- कालिकद्वीप में हमलोगों ने अनेक रङ्ग-विरंगे सुन्दर जाति के पोड़े देखे। हमारे शरीर की गंध पा वे घबरा उठे और दौड़ लगा अनेक योजन दूर ऐसे स्थान में चले गये जहाँ विस्तृत मैदान, प्रचुर तृण और पेट भर पीने को जल था। वहाँ वे निर्भय, उद्वेगरहित और सुखपूर्वक विचरने लगे । राजा ने अनेक भृत्य साथ में किये। घोड़ों को लुभाने की नानाविध सामग्रियाँ दीं । तथा वणिकों को वापिस जा घोड़े लाने की प्राज्ञा दी । कालिकद्वीप पहुँच उन्होंने जहाँ-जहाँ घोड़े बैठते, सोया करते, ठहरते या लेटा करते वहाँ-वहाँ सर्वत्र शब्द, रूप, गंध, रस और स्पर्श में उत्कृष्ट भोग-सामग्रियों को धर दिया और निश्चल और निःशब्द हो छिप कर घोड़ों को पकड़ने का प्रयत्न करने लगे । घोड़े सदा की तरह वहाँ प्राये । इन अपूर्व भोग सामग्रियों को देख कर भी कई घोड़े उनसे मोहित और आकृष्ट नहीं हुए वे उडिझ भयभीत हो, वहाँ से दूर दौड़ गये। जो मुन्ध हुए वे वहीं रह गए। वे वीणा यादि वाद्य यन्त्रों के मधुर शब्दों से मोहित हो सुन्दर, सुसज्जित, स्वादिष्ट और सुस्पर्शवाली वस्तुओं को भोगने में तल्लीन हो गये। इस तरह निशंक हो विचरने लगे । व्यापारियों ने उनके गले और पैरों में रस्सियां डाल उन्हें गाढ़ बन्धन में बांध लिया और वापिस श्रा राजा को श्रश्व सौंपे। राजा ने उन्हें अश्व मर्दकों को सौंपा।
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अश्व मर्दकों ने अनेक प्रयोग और उपायों से उन घोड़ों को सुशिक्षित किया। अब वे सवारी के काम में आने लगे ।
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इस कथा का उपनय है जो ब्रह्मचारी शब्द (गीत- गान), रूप (स्त्री प्रादि के सौन्दर्य), रस (खट्टे-मीठे आदि पांच प्रकार के स्वाद - सरस आहार), गंध (सुगन्धित द्रव्य) और स्पर्श ( शय्या, स्त्री आदि के सुकोमल स्पर्श) इन पाँच प्रकार के इन्द्रियों के विषय में राग नहीं करते, मूच्छित नहीं होते हैं, वे अन्त में मोक्ष प्राप्त करते हैं। जन्म, मरण, जरा आदि व्याधियों से मुक्ति प्राप्त करते हैं। जो ब्रह्मचारी शब्द, रूपादि विषयों में राग, मूर्च्छा करते हैं, गृद्ध होते हैं और विषयों में स्वच्छंद विचरते हैं, वे भ्रष्ट हो पापों के शिकार होते हैं ।
अब्रह्म
महात्मा गांधी ने कहा है जो ब्रह्मचर्य की साधना करना चाहते है ये विषय भोग में दुःख ही दुःख है, इसे सदा स्मरण रखें " उमास्वाति ने दो सूत्र दिए हैं। पहला सूत्र है "हिंसादिविहामुत्र चापायावद्यदर्शनम् ४" साधक को हिंसा, मृषा, प्रदत्त और परिग्रह में, इस लोक और परलोक में निरन्तर सवाय और प्रवद्य का दर्शन-चिन्तन करना चाहिए। अपाय का पर्व है-प्रभ्युदय धौर निःश्रेयस की साधक क्रिया के विनाश का प्रयोग और अवध का पर्व है ग सामक हमेशा यह भावना रखें कि अझ अभ्युदय और निःस इन दोनों अर्थी के विनाश का हेतु है और इसलिए गह्य' है। वह सोचे : "श्रब्रह्मचारी विभ्रम को प्राप्त हो उद्भ्रान्त चित्त बन जाता है। उसकी इन्द्रियाँ बेलगाम होती है। वह मदांध हाथी की तरह निरखुश हो जाता है। वह मोह से अभिभूत हो कर्तव्य-प्रकर्तव्य का भान भूल जाता है। ऐसा कोई बुरा काम नहीं, जो वह न कर बेडे । लम्पट को इस लोक में वैरानुबन्ध, वध आदि क्लेश प्राप्त होते हैं। परलोक में दुर्गति होती है५ ” ।
१ - ज्ञाताधर्मकथा अ० ४ देखिए; लेखक की 'दृष्टान्त और धर्मकथाएँ' नामक पुस्तक पृ० २६-२६
२ - ज्ञाताधर्मकथा अ० १७ देखिए; लेखक की 'दृष्टान्त और धर्म कथाएँ' नामक पुस्तक पृ० ८७-६२ ३ - ब्रह्मचर्य (श्री) पृ० ३३
४ — तत्त्वार्थसून ७.४ ५-बही भाष्य
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