________________
आठमी बाड़ ढाल ६ : गा० २-१०
चांपे करे आहार रे,
, २ ते
ते
पर्चे
सताव
सूं ।
तो विषे वर्धे तिण रें घणीं ए ॥
३ – जब यांन
as गमती लागें
४ – हूँ सील पालूं संका
गमता लागें
माठो
-R.
भोग रे,
रहें ।
ए ॥
पछें भोग तणी वंछा हुर्वे ए ॥
अस्त्री
- मोनें लाभ होसी के नांहि रे,
पालीयां । ए ॥
के नांहि रे, उपजें।
सील वरत ए पिण सांसों उपजें
८- के
६- जब भिष्ट हुर्वे वरत भांगरे, भेष मांहें hs मेष छोडी हुर्वे गृहस्थी ए ॥
थकां ।
जे चांपे कीधां आहार रे, पर्चे आछी- . तरें । तो इसडो अनरथ नीपजें ए
॥
रोग रे,
कारेंरे दुर्वे इको कीयां
आहार
वर्धे असातावेदनी ए ॥
मुख
पेटें
फार्ट पेट अतंत रे, बंधहु नाड़ीयां । वले सास लेवें अबखो थको ए ॥
• --बले हुवें अजीरण रोग
M
वार्से
फालें आफरो
रे,
रो
ए ।
२ - तब हँस-हँस कर किया हुआ आहार शीघ्र पचता है जिससे अति विषय विकार की वृद्धि होती है।
३ - विषय - विकार की वृद्धि से भोग अच्छे लगते हैं, ध्यान विकार - प्रस्त होता है और स्त्री मन को अच्छी लगने लगती है ।
४ - शील का पालन उत्पन्न होती है। फिर
लगती है ।
करूँ या नहीं, ऐसी शंका भोग की कामना होने
५-६ - फिर, शीलव्रत के पालन से मुझे लाभ होगा या नहीं, ऐसा संशय उत्पन्न होता है ।
इस तरह शंका, कांक्षा, विचिकित्सा उत्पन्न होने से कई वेष में रहते हुए व्रत को भंगकर भ्रष्ट हो जाते हैं और कई साधु का वेष छोड़कर गृहस्थ हो जाते हैं।
७--- हँस-हँस कर आहार करने पर यदि वह अच्छी तरह पचता है तो ऐसा अनर्थ उत्पन्न होता ཐག་ ག
है ।
८-६ - जब प्रहीत आहार ठीक से नहीं पचता है तो कइयों को रोग आ घेरते हैं। शारीरिक वेदना बढ़ती है। पेट फटने लगता है । नाड़ियों की गति मन्द हो जाती है और श्वास ग्रहण में कठिनाई होती है ।
定
सिि
१० - फिर अजीर्ण हो जाता है। मुख बुरी तरह बदबू देने लगता है । पेट अफर जाता है।
Scanned by CamScanner