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शील की नव बाड़,
होता। दूसरों को तो प्रतिष्ठा के और ऐसे दूसरे कितने ही विचार आते हैं।
- "मुझे लगता है कि गीता के श्लोक को आपने बहुत गलत तरीके से लागू किया है । अापके अर्थ के अनुसार तो संयम के सारे प्रार मिथ्याचार में शामिल हो जायेंगे। विवाह की इच्छा रखनेवाले एक वृद्ध पुरुप को मैंने इस श्लोक का ऐसा ही अर्थ करते सुना है। दे र कि जब मेरे मन में तीव्र विषय-वासना है, तब मेरे स्थल संयम-पालने से क्या होगा? यह तो केवल मिथ्याचार ही होगा। इसलिए मझेदार कर लेनी चाहिए। 'अ' शराब के लिए तड़पता रहता हो, 'ब' पराई स्त्री को कुदृष्टि से देखता हो, 'ग' का किसी की घड़ी चुरा लेने का करता हो, परन्तु वे अपनी इन्द्रियों को वश में रखते हों, तो क्या इसे मिथ्याचार माना जायगा ? क्या उन्हें शराब का नशा, व्यभिचार जोर मादि करना चाहिये ? विषयों का स्मरण हो सकता है, इच्छा भी हो सकती है, परन्तु इस कारण कर्मेन्द्रियों का संयम गलत है-ऐसा इस श्लोक का अर्थ करना मुझे ठीक नहीं लगता। जैसा कि मैंने ऊपर कहा—'गीता के अनुसार जो कर्म धर्म नहीं, वह कर्म ही नहीं है; वह विकर्म या अप. कर्म है।' विकर्म की तरफ चाहे जितना हमारा मन दौड़े, हमें वह पागल भी बना दे, तो भी उससे कर्मेन्द्रियों को हमेशा हठपूर्वक रोकनाही चाहिये । परन्तु जो कर्म धर्म्य हों, उनमें इन्द्रियों का संयम करना चाहिये या नहीं, यह प्रश्न पैदा हो तो गीता कहती है कि 'मन में उनकी प्रासनि रखना और स्थूल त्याग करना ठीक नहीं है। सबसे उत्तम होगा तो यह होगा कि मासक्ति न रखकर वे कर्म किये जायं।......'
........""कुछ कर्म ऐसे होते हैं जिन्हें करने की धर्म-सदाचार-इजाजत देता है। लेकिन वे अनिवार्य कर्त्तव्य के रूप में नहीं होते। ऐसे कर्मों के बारे में भी यह श्लोक लागू हो सकता है। उनमें प्रासक्ति हो तो धार्मिक ढंग से उन्हें करते क्यों नहीं ? लेकिन आसक्ति न हो तो कोई उन्हें करने को नहीं कहता। परन्तु आसक्ति है, इसलिए अधार्मिक ढंग से उन्हें करना ता ठीक नहीं।
2 "लेकिन प्रासक्ति होने पर भी ये कर्म करने ही चाहिए, ऐसा कोई नहीं कहता । साधक पासक्ति के समय में ही संयम का प्रयत्न करता है । वह इन्द्रियों को रोकता है, मन को मोड़ना चाहता है, पर सफल नहीं होता । उसका यह संयम कैसा माना जायगा ? सफलता नहीं मिलती, इसलिए उतने समय के लिए हम भले ही उसे मिथ्याचार कहें। परन्तु यह उसी तरह मिथ्या है, जिस तरह गणित के किसी अटपटे सही सवाल को रीति से किये जाने पर भी कहीं नजर से भूल हो जाने के कारण गलत उत्तर प्रावे और हम उसे मिथ्या कहें। इसमें उत्तर गलत आया है, लेकिन रीति सही है । उसी तरह संयम का प्रयत्न भले निष्फल गया, लेकिन उसकी रीति तो सही है । वह मिथ्याचार है, इसका यह अर्थ नहीं कि वह सत्य-विरोधी प्राचार है ; उसका अर्थ केवल इतना ही है कि वह उस क्षण के लिए गलत-मिथ्याचार है। उसे मिथ्याचार कहें तो, ऐसे सैकड़ों मिथ्याचार उचित माने जायंगे ।" (२५-४-'३५)
चार उचित माने जायंगे।" (२५.४.३५ ३-....."धर्म की रक्षा के लिए व्यवहार की मर्यादा बांधना और पालना जरूरी तो है, लेकिन उस मर्यादा की भी कोई मर्यादा होनी चाहिए, वरना वह मर्यादा भी अधर्म बन जायेगी। उदाहरण के लिए खाने-पीने की चीजों, बर्तनों, कपड़े-लत्ते वगैरह के बारे में स्वच्छता का नियम बेशक होना चाहिये। परन्तु जव हम इस स्वच्छता को एक ऐसा धर्म बना डालें कि वह धर्म का अङ्ग बनने के बजाय धर्म की मात्मा का महत्व ग्रहण कर ले, तब स्वच्छता का वह नियम दोषरूप ही माना जायेगा। झाड़ की रक्षा के लिए बाड़ लगानी चाहिए। लेकिन यदि यह बाड़ ही झाड़ को निगल जाय, तो वह रक्षक के बदले भक्षक बन जायगी।
"चूंघट या पर्दा की प्रथावाले समाज में भी मां, बहन या लड़की अपने पुत्र, भाई या पिता का पर्दा नहीं करती। अगर ऐसा हो तो वह अतिशयता ही कही जायेगी। फिर भी मां, बहन या लड़की के साथ भी एकान्त में न रहा जाय और मर्यादा में रहकर ही हिला-मिला जाय, इस सूचना में धर्म की मर्यादा बांध दी गई है। जो नियम मां, बहन या लड़की के साथ के बरताव में पाला जाय, वही दूसरी स्त्रियों के साथ के बरताव में विशेष प्राग्रह से पाला जाय, यही धर्म है।
..१-कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान् विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥३-५ . ..
-कर्मेन्द्रियों का संयम करके जो मूढ़ पुरुष मन में विषयों का स्मरण किया करता है, वह मिथ्याचारी कहा जाता है। -स्त्री-पुरुष-मर्यादा (स्पर्थ की मर्यादा) पृ०६९-७६
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