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भूमिका
"किसी स्त्री-पुरुष को एक-दूसरे के सम्बन्ध में आना ही नहीं चाहिए, ऐसा धर्म नहीं बनाया जा सकता। यदि दोनों एक-दूसरे का मुल नहीं देखें, ऐसा धर्म बना कर स्त्री-पुरुष दोनों के लिए एक-सा लागू किया जाय तो उससे भी सामाजिक जीवन शक्य बन जायेगा। कोई सूरदास यदि यह देखकर अपनी आँखें फोड़ ले कि वह पापी बने बिना नहीं रहतीं, तो वह उसकी अपनी पसन्दगी मानी जायगी। लेकिन ऐसा नहीं कहा जा सकता कि शील और पवित्रता की रक्षा के लिये माँ फोड़ लेना धर्म है। यदि कोई भक्त संप्रदाय धाँ फोड़ने को धर्म बना ले, तो उसे रोकने का भी कर्त्तव्य पैदा हो सकता है । उसी तरह कोई निवृत्ति-मार्गी भक्त या साधक ब्रह्मचर्य पालने के लिए स्त्री सहवास का आठों प्रकार से त्याग करें, तो वह उनकी स्वतंत्र पसन्दगी मानी जायगी, और वह कभी जरूरी भी नहीं हो सकती है। लेकिन इसे यदि समाज का धर्म बना दिया जाय, तो उसमें प्रतियता का धर्म माना जायगा। उसी तरह यदि कोई सुन्दर स्त्री को यह अनुभव होता हो कि पनी या पुरुषों की रक्षा के लिए, उसका मुंह छिपाकर रखना ही सुरक्षित मार्ग है। श्रीर जिस कारण से वह स्वेच्छा से बुर्का पहने या घूंघट करे, तो उसके खिलाफ शिकायत करने की शायद हमें जरूरत न रहे। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि ऐसा करना उसका धर्म है । अगर यह अनुभव हो कि स्त्रियों के पर्दा करने से पुरुषों के विकार कुछ शान्त रहते हैं, तो भी उसे धर्म का नियम नहीं बनाया
जा सकता ।
"मैं जब यह कहता हूँ कि सिर्फ मन की पवित्रता पर आधार न रखकर स्थूल नियम भी पालने चाहिये, तो उसका यह मतलब नहीं है कि मैं स्थूल नियमों के पालन को मन की पवित्रता का स्थान देता हूं। " ( ७-१० - ३४)
४.यह जरूर है कि मैं स्त्री-पुरुषों के परस्पर मिलने में मर्यादा-पालन की आवश्यकता मानता हूं और जो मर्यादाएँ मैले सुझाई हैं, वे मेरे खयाल से स्त्री-पुरुष के साथ मिलकर काम करने में बाधा नहीं डालतीं। मैं यह सोच भी नहीं सकता कि साथ मिलकर काम करने के लिए एक-दूसरे के साथ एकांत में रहने, एकांत में गुप्त बातें करने या जान-बूझ कर एक-दूसरे के श्रङ्गों को छूने की जरूरत क्यों पैदा होनी चाहिए। एक खास उम्र में केवल पुरुष-पुरुष का और स्त्री-स्वी का ऐसा सहवास भी अनिष्ट होता है, तब यदि स्त्री-पुरुष का सहयास व्यादा अनिष्ट सिद्ध हो, तो कोई अचरज की बात नहीं।
के साथ आाजादी से उनका जीवन पवित्र मैं चाहता है कि उनकी वही स्थिति जीवन के अन्त तक बनी रहे। फूल कर कुप्पा न हो जायं। यह तो वैसी ही बात हुई, जैसे कोई कहे
"कुछ नवयुवक इस बात का विश्वास दिलाते हैं कि ३० वर्ष की भरी जवानी में होते हुए और जवान लड़कियों मिलते हुए भी उन्होंने पवित्र जीवन बिताया है और मेरी बताई हुई मर्यादानों के पालन की जरूरत महसूस नहीं की। रहा है, यह उनकी बात मैं सच मान लेता हूं और उन्हें बधाई देता हूँ लेकिन मैं उन्हें सावधान कर देता हूं कि जीवन के इतने ही अनुभव से वे कि हम २० वर्ष तक आग से जले नहीं, इसलिए ग्राग से जलने का डर झूठा है । "बहुत से नवयुवकों को शायद यह पता नहीं होगा कि पुरुष के जीवन में और खास करके महत्वाकांक्षी पुरुष के जीवन में नीचे गिरने का समय ३५-४० की उम्र के बाद प्रारंभ होता है । डॉक्टरों, मनोवैज्ञानिकों और वृद्धों का अनुभव है कि पिछले २५ वर्षों के श्रांकड़े यह बताते हैं कि व्यभिचारी जीवन बितानेवाले पुरुषों का बड़ा हिस्सा ३५-४० की उम्र पार कर चुकनेवालों का रहा है। इसके पीछे कारण भी रहता है। इस उम्र तक उत्साही नवयुवकों के हृदय में विषय-भोग की अपेक्षा छोटी-मोटी अभिलापायें पूरी करने के मनोरथ ज्यादा बलवान होते हैं । भोग-विलास का इस उम्र में प्रमुख स्थान नहीं होता। इसलिए वे इस इच्छा को दबा भी देते हैं। इस उम्र में भी जो भोगों के 'युवक पीछे पड़ा हो, वह रोगी कहा जा सकता है। इस उम्र के बाद उसके जीवन में थोड़ी स्थिरता आती है, वह दौड़-धूप और चिन्ताओं से मुक्त हो जाता है, शायद वाला, स्वतंत्र और पहले की अपेक्षा खाने-पीने के ज्यादा सुभीते पा सकनेवाला हो जाता है। उसकी महत्वाकांक्षायें
ठंडी पड़ जाती है, और अगर उसका जीवन प्रपंच में बीता हो तो यह थोड़ा बहुत नैतिकता की भावना शिथिल हो, तो उसके गिरने की संभावना बढ़ जाती है। हिस्सा इस उम्र को पार कर चुकनेवाला होता है।
धूर्त भी बन जाता है। इसके साथ यदि उसकी सदाचार मौर इसलिए यह कहा जाता है कि व्यभिचारी पुरुषों का बढ़ा (0723
"इस पर से यह कहा जा सकता है कि ३० वर्ष तक ब्रह्मचर्य पालने की बात कहना किसी असंभव वात की सूचना नहीं है । लेकिन इसका यह घर्ष नहीं किया जा सकता कि इस उम्र तक नियम पालन करने की जरूरत नहीं, या इस उम्र से पहले विवाह सम्बन्ध जोड़े बिना
१ स्त्री-पुरुष मर्यादा (पर्दा और धर्मरक्षा) पृ० ४३.४५
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