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१२.
(२) क्या ब्रह्मवर्य से मनुष्य जाति नाश को प्राप्त न हो जायेगी ?
शील की नव बाड़
इस प्रश्न का भी उतर टॉल्स्टॉय ने प्रतीव सुन्दर ढंग से इस प्रकार दिया है :
"लोग पूछते हैं-यदि ब्रह्मचर्य विषयोपभोग की अपेक्षा श्रेष्ठ है, तो यह स्पष्ट है कि मनुष्य को श्रेष्ठमार्ग का अवलम्बन करना चाहिए।
पर यदि वे ऐसा करें तो मनुष्य जाति नष्ट न हो जायगी ?
"किन्तु पृथ्वीतल से मनुष्य जाति के मिट जाने का हर कोई नवीन बात नहीं है। धार्मिक लोग इस पर बड़ी श्रद्धा रखते हैं और वैज्ञानिकों के लिए सूर्य के ठण्डे होने के बाद यह एक अनिवार्य बात है।
"इस तरह की दलील पेश करनेवालों के दिमाग में मीति नियम और साद का भेद स्पष्ट नहीं है।
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ब्रह्मचर्य कोई उपदेश अथवा नियम नहीं, यह तो बादर्श वा आदशों की शर्तों में से एक है बादर्श तो तभी आदर्श कहा जा है जब उसका द्वारा ही सम्भव हो, जब उसकी प्राप्ति अनन्त की 'भाड़ में छिपी हो। घीर इसलिए उसके पास जाने की संभावना भी अनन्त हैं । यदि आदर्श प्राप्त हो जाये, श्रथवा हम उसकी प्राप्ति की कल्पना भी कर सकें, तो वह प्रादर्श ही नहीं रहा ।
"पृथ्वी पर परमात्मा के राज्य की अर्थात् स्वर्ग की स्थापना करने का प्रादर्श ऐसा ही था ।... श्रतः इस उच्च श्रादर्श की पूर्णता की तरफ कदम बहाने और ब्रह्मवयं को उस आदर्श का एक मानकर चलने से जीवन का विनाश संभव नहीं, बल्कि उसके विपरीत बात तो यह ठीक है कि इस आदर्श का अभाव ही हमारी प्रगति के लिए हानिकारक और इसलिए सच्चे जीवन के लिए घातक होगा ।
"जीवन कलह को छोड़कर यदि हम मित्र शत्रु, प्राणी मात्र के प्रति प्रेम-धर्म के प्रदेश के अनुसार रहने लग जायें, तो क्या मनुष्य जाति नष्ट हो जायगी ? प्रेम-धर्म के पालन से मनुष्य जाति के विनाश का सन्देह करने के समान ही ब्रह्मचर्य के पालन से मनुष्य जाति का विनाश होने की शंका करना है" ।
"पूर्णता को प्राप्त करने की कुंजी है ब्रह्मचर्य । जीवनोद्देश्य ही सफल हो जाय। फिर मनुष्य के लिए पैदा महात्मा गांधी के सामने प्रश्न आया - " प्राप तो ब्रह्मचर्य का सबके लिए ही श्राग्रह करते होंगे? " उन्होंने उत्तर दिया--"हो, सबके लिए।" प्रर्ता ने कहा- "य तो संसार मिट जायगा ?" महात्माजी बोले- "नहीं, संसार नहीं मिटेगा ऐसी प्रादर्श स्थिति हो जाय तो सब मोच्छुओं का ही समाज होकर रहे मनुष्य मनुष्य न रहें, पर प्रतिमानव होकर बड़े रहें।" १५- क्या ब्रह्मचर्य एक आदर्श है ?
"यदि मनुष्य सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन करने लग जाय तो मानव जाति का होने और जीने की कोई श्रावश्यकता ही नहीं रह जाय" । "
१- स्त्री और पुरुष पृ० ११ से १३ तक का सार
२ वही पृ० ५७
३ - ब्रह्मचर्य (श्री०) पृ० ८२
४-स्त्री और पुरुष पृ० ४६ ५- वही पृ० ४६-७
संत टॉल्स्टॉय सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य को एक आदर्श और परीरधारी द्वारा घप्राप्य मानते हैं। उनके विचार इस प्रकार हैं :
"इस बात को कभी न भूल कि तू न तो कभी पूर्णतः ब्रह्मचारी रहा है और न रह सकता है। हाँ, तो उसके नजदीक जरूर पहुँच सकता है और इस प्रयत्न में कभी निराशा न होनी चाहिए ।
"सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य को नहीं पर इसके अधिक-से-अधिक नजदीक पहुँचने को ध्येय मानकर अपना बढ़ना शुरू कीजिए। सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य तो एक आदर्श सृष्टि की वस्तु है । सच-सच कहा जाय तो शरीरधारी मनुष्य उसे कभी प्राप्त नहीं कर सकता। वह तो केवल उस तरफ बढ़ने का प्रयत्न मात्र कर सकता है क्योंकि वह ब्रह्मचारी नहीं, विकारपूर्ण है। यदि आदमी विकारपूर्ण नहीं होता, तो उसके लिए न तो ब्रह्मचर्य के आदर्श की और न उसकी कल्पनाही की आवश्यकता होती गलती तो यह है कि मनुष्य अपने सामने सम्पूर्ण (बाह्य शारीरिक) ब्रह्मचर्य का पादर्श रखता है।
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न कि उसके लिए प्रयत्न करने का प्रयत्न में एक बात ग्रहीत समझी जाती है यह कि हर हालत में और हमेशा ब्रह्मचर्य विकारवशता से श्रेष्ठ है। सदा अधिकाधिक पवित्रता को प्राप्त करना मनुष्य का धर्म है ५ ।"
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