________________
भूमिका
३१
१४- ब्रह्मचर्य के विषय में दो बड़ी शंकाएँ
ब्रह्मचर्य के विषय में प्रायः दो शंकाएँ सामने श्राती हैं - (१) क्या ब्रह्मचर्यं श्रव्यावहारिक नहीं ? और (२) उसके पालन से क्या मनुष्य जाति का नाश नहीं हो जायगा ? इन दोनों का निराकरण नीचे दिया गया है :
(१) क्या ब्रह्मवर्य अव्यावहारिक नहीं ?
इस प्रश्न पर टॉल्स्टॉय ने बड़ े अच्छे ढंग से विचार किया है। उन्होंने कहा है :
"कुछ लोगों को ब्रह्मचर्य के विचार विचित्र और विपरीत मालूम होंगे, श्रौर सचमुच विपरीत हैं भी। किन्तु अपने प्रति नहीं, हमारे वर्तमान जीवन क्रम के एकदम विपरीत हैं ।
"लोग कहेंगे ये तो सिद्धान्त की बातें हैं। भले ही वे सच्ची हों तो भी हैं वे धाखिर उपदेश ये प्रादर्श प्राप्य हैं। ये संसार में हमारा हाथ पकड़कर नहीं ले जा सकते । ये प्रत्यक्ष जीवन के लिए एकदम निरुपयोगी हैं इत्यादि इत्यादि ।
"दित यही है कि अपनी कमजोरी से मेघ बंठाने के लिए आदर्श को ढीला करते ही यह नहीं सूझ पड़ता है कि नहीं ठहरा जाय ? "यदि एक जहाज का कप्तान कहे कि मैं कम्पास द्वारा बतायी जानेवाली दिशा में ही नहीं जा सकता, इसलिए मैं उसे उठाकर समुद्र में डाल दूँगा, उसकी तरफ देखना ही बन्द कर दूंगा या में कम्पास की सुई को पकड़ कर उस दिशा में बाँध दूँगा, जिघर मेरा जहाज जा रहा है अर्थात् अपनी कमजोरी तक आदर्श को नीचे खींच लूँगा, तो निस्सन्देह बेवकूफ कहा जायगा।
.
"नाविक का अपने कम्पास श्रर्थात् दिशा दर्शक यन्त्र में विश्वास करना जितना भावश्यक है, उतना ही मनुष्य का इन उपदेशों में विश्वास करना भी है। मनुष्य चाहे किसी परिस्थिति में क्यों न हो, श्रादर्श का उपदेश उसे यह निश्चित रूप से बताने के लिए सदा उपयोगी होगा कि उस मनुष्य को क्या-क्या बातें नहीं करनी चाहिएँ ? पर चाहिए उस उपदेश में पूरा विश्वास, अनन्य श्रद्धा । जिस प्रकार जहाज का मल्लाह या कतान उस कम्पास को छोड़ दायें-बायें आनेवाली और किसी चीज का खयाल नहीं करता, उसी प्रकार मनुष्य को भी इन उपदेशों में पूरी श्रद्धा रखनी चाहिए।
" बतलाये हुए श्रादर्शों से हम कितने दूर हैं, यह जानने से मनुष्य को कभी डरना न चाहिए। मनुष्य किसी भी सतह पर या किसी भी हालत में क्यों न हो, वहाँ से वह वरावर प्रादर्श की तरफ बढ़ सकता है। साथ ही वह कितना ही आगे क्यों न बढ़ जाये, वह कभी यह नहीं कह सकता कि अब मैं छेठ तक पहुँच गया या श्रव श्रागे बढ़ने के लिए कोई मार्ग ही न रहा ।
"प्रादर्श के प्रति और खासकर ब्रह्मचर्य के प्रति मनुष्य की यह वृत्ति होनी चाहिए ।
"यह सत्य नहीं कि आदर्श के ऊँचे पूर्ण और दुरुह होने के कारण हमें धरने मार्ग में धागे बढ़ने में कोई सहायता नहीं मिलती। हमें उससे प्रेरणा और स्फूर्ति इसलिए नहीं मिलती कि हम अपने प्रति श्रसत्य आचरण करके अपने आपको धोखा देते हैं ।
"हम अपने श्रापको समझाते हैं कि हमारे लिए अधिक व्यावहारिक नियमों का होना जरूरी है, क्योंकि ऐसा न होने पर हम अपने प्रदर्श से गिरकर पाप में पड़ जायेंगे। इसके स्पष्ट मानी यह नहीं कि आदर्श बहुत ऊंचा है, बल्कि हमारा मतलब यह है कि हम उसमें विश्वास नहीं करते और न उसके अनुसार अपने जीवन का नियमन ही करना चाहते हैं ।
लोग कहते हैं, मनुष्य स्वभावतः अपूर्ण है उसे वही काम दिया जाये, जो उसकी शक्ति के अनुसार हो। इसके मानी तो यही हुए कि मेरा हाथ कमजोर होने से में सीधी रेखा नहीं खींच सकता, इसलिए सीधी रेखा सींचने के लिए मेरे सामने टेड़ी या टूटी लकीर का ही नमूना रखा जाय । पर बात यह है कि मेरा हाथ जितना ही कमजोर हो, बस, उतना ही पूर्ण नमूना मेरे सामने होना श्रावश्यक है ।
"किनारे के नजदीक से होकर चलनेवाले जहाज के लिए यह भले ही कहा जा सकता है कि उस सोधी-ऊंची चट्टान के नजदीक से होकर चलो, उस अन्तरीप के पास से उस मीनार के बायें होकर चले चलो। पर अब तो हमने जमीन को बहुत दूर पीछे छोड़ दिया । अब तो नक्षत्रों और दिशा दर्शक यंत्र की सहायता से ही हमें अपना रास्ता ढूँढ़ना होगा और ये दोनों हमारे पास मौजूद हैं ।"
१- स्त्री और पुरुष पृ० २० से २८ तक का सार
Scanned by CamScanner