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शील की नव बाड
१३-विवाह और जैन दृष्टि यहाँ इतना स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जैनधर्म विवाह-विधान नहीं देता। विवाह को अनाध्यात्मिक समझता है । जैनधर्मर निवृत्ति रूप है और गार्हस्थ्य उसमें प्रवृत्ति रूप, अत: वह गार्हस्थ्य का विधान नहीं करता । उसका आदर्श महावत है और उसमें प्रवत्ति इसलिए भी उसमें गार्हस्थ्य से निवृत्ति का ही विधान हो सकता है।
ईसा का विवाह सम्बन्धी दृष्टिकोण जन प्ररूपण के बहुत समीप है । संत टॉल्स्टॉय लिखते हैं : Sa "रति (संभोग) तथा ऐसी ही अन्य बातों में जैसे हिंसा, क्रोध आदि-मनुष्य को चाहिए कि वह कभी आदर्श को नीचा न करे और न कभी कोई रूपान्तर ही करे।" "पूर्ण शुद्ध ब्रह्मचर्य आदर्श है। परमात्मा की सेवा करनेवाला विवाह की उतनी ही इच्छा करेगा, जितनी शराब पीने की । पर शुद्ध ब्रह्मचर्य के राजमार्ग में कई मञ्जिलें हैं। यदि कोई पूछ कि हम विवाह करें या नहीं, तो उसे केवल यही उत्तर दिया जा सकता है कि यदि आपको ब्रह्मचर्य के प्रादर्श का दर्शन नहीं हो पाया हो, तो स्वामख्वाह उसके सामने अपना सिर न झुकायो। हाँ, वैवाहिक जीवन में विषयों का उपभोग करते हुए धीरे-धीरे उस आदर्श की ओर बढ़ो। यदि मैं ऊँचा हूँ और दूर की इमारत को देख सकता है और मुझसे छोटे कदवाला मेरा साथी उसे नहीं देख पाता, तो मैं उसे उसी दिशा में कोई नजदीकवाली वस्तु दिखा कर उद्दिष्ट स्थान की कल्पना कराऊँगा । उसी प्रकार जो लोग सुदूरवर्ती ब्रह्मचर्य के आदर्श को नहीं देख पाते, उनके लिए ईमानदारी के साथ विवाह करना उस दिशा की एक पास की मंजिल है। पर यह मेरी और आपकी बतायी मंजिल है । स्वयं ईसा तो सिवा ब्रह्मचर्य के और किसी प्रादर्श को न तो बता सकते थे और न उन्होंने बताया ही है।
"धर्म-ग्रन्थ में विवाह की आज्ञा नहीं है। उसमें तो विवाह का निषेध ही है । अनीति, विलास तथा अनेक स्त्री-संभोग की कड़े-से-कडे शब्दों में निन्दा अलबत्ते की गयी है । विवाह-संस्था का तो उसमें उल्लंख भी नहीं है।
"ईसाई-धर्म के अनुसार न तो कभी विवाह हुआ है और न हो ही सकता है, क्योंकि धर्म विवाह की प्राज्ञा नहीं करता; ठीक उसी तरह जैसे कि धन-संचय करने का भी आदेश नहीं करता। हाँ, इन दोनों का सदुपयोग करने पर अलबता वह जोर देता है।"
वैदिक संस्कृति में गार्हस्थ्य ही प्रधान रहा । क्योंकि वेदों के अनुसार ब्रह्मचर्याश्रम विद्याकाल रहा और उसके बाद गार्हस्थ्य प्रारंभ होता जो जीवन के अन्त तक रहता। उपनिषद्-काल में वानप्रस्थ और बाद में स्मृतिकाल में संन्यास पल्लवित हुआ, फिर भी गार्हस्थ्य प्राश्रम ही धन्य कहा जाता रहा। ऐसी स्थिति में विवाह-संस्था का वैदिक संस्कृति में मुख्यत्व रहा है और वैदिक संस्कृति के क्रियाकाण्ड में सन्तान का प्रजनन आवश्यक होने से विवाह और प्रजनन के भी आदेश वेद जैसे धर्म ग्रंथों में उपलब्ध हैं।
एक बार महात्मा गांधी से पूछा गया-"क्या आप विवाह के विरुद्ध हैं ?" उन्होंने उत्तर दिया-"मनुष्य जीवन का सार्थक्य मोक्ष है। हिन्द के तौर पर मैं मानता हूँ कि मोज अर्थात् जीवन-मरण की घट-माल से मुक्ति-ईश्वर-साक्षात्कार । मोक्ष के लिए शरीर के बन्धन टटने चाहिए। शरीर के बन्धन तोड़नेवाली हरएक वस्तु पथ्य और दूसरी अपथ्य है । विवाह बन्धन तोड़ने के बदले उसे उलटा अधिक जकड़ लेता है। ब्रह्मचर्य ही ऐसी वस्तु है जो कि मनुष्य के बन्धन मर्यादित कर ईश्वरार्पित जीवन बिताने में उसे शक्तिमान करता है।...विवाह में तो सामान्य रूप से विषय-वासना की तृप्ति का ही हेतु रहा हुआ है। इसका परिणाम शुभ नहीं । ब्रह्मचर्य के परिणाम सुन्दर हैं
जैन दृष्टि का स्पष्टीकरण करते हुए पं० सुखलालजी एवं बेचरदासजी लिखते हैं-"जीवन में गृहस्थाश्रम रागद्वेष के प्रसंगों के विधान का केन्द्र है। इससे जिस धर्म में गृहस्थाश्रम का विधान किया गया है, वह प्रवृत्तिधर्म और जिस धर्म में गृहस्थाश्रम का नहीं पर मात्र त्याग का विधान है, वह निवृत्तिधर्म है। जैन धर्म निवृतिधर्म होने पर भी उसके पालन करनेवालों में जो गृहस्थाश्रम का विभाग देखा जाता है, वह निवृत्ति की अपूर्णता के कारण है। सर्वांश में निवृत्ति प्राप्त करने में असमर्थ व्यक्ति जितने-जितने अंशों में निवृत्ति का सेवन करता है उतने-उतने अंशों में वह जैन है। जिन अंशों में निवृत्ति का सेवन न कर सके, उन अंशों में अपनी परिस्थिति अनुसार विवेकदृष्टि से वह प्रवृत्ति की रचना कर ले: पर इस प्रवृत्ति का विधान जैन शास्त्र नहीं करता। उसका विधान तो मात्र निवृत्ति का है। इससे जैन धर्म को विधान की दृष्टि से एकाथमी कहा जा सकता है । वह एकाश्रम याने ब्रह्मवर्य और संन्यास आश्रम का एकीकरणरूप त्याग का प्राश्रम" १-स्त्री और पुरुष पृ०४१. २.-वही पृ०४७
३-वही १०७७ ४-वही प० ७६
५-ब्रह्मचर्य (श्री०) पृ०८२-८३ -जैन दृष्टिए ब्रह्मचर्यविचार पृ० २
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