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भूमिका
महात्मा गांधी ने कहा है :
"ब्रह्मचर्य का मानी है सम्पूर्ण इन्द्रियों पर पूर्ण अधिकार । पूर्ण ब्रह्मचारी के लिए कुछ भी अशक्य नहीं। पर यह आदर्श स्थिति है जिस तक बिरले ही पहुँच पाते हैं। इसे ज्यामिति की रेखा कह सकते हैं, जिसका अस्तित्व केवल कल्पना में होता है, दृश्य रूप में कभी खींची ही नहीं जा सकती। फिर भी रेखागणित की यह एक महत्त्वपूर्ण परिभाषा है जिससे बड़े-बड़े नतीजे निकलते हैं। इसी तरह हो सकता है, पूर्ण ब्रह्मचारी भी केवल कल्पना जगत में ही मिल सकता हो । फिर भी अगर हम इस आदर्श को सदा माने मानस-नेत्रों के सामने न रखें तो हमारी देशा बिना पतवार की नाव जैसी हो जायगी। ज्यों-ज्यों हम इस काल्पनिक स्थिति के पास पहुँचेंगे त्यों-त्यों अधिकाधिक पूर्णता प्राप्त करते जायंगे।"
ऐसा लगता है जैसे संत टॉल्स्टॉय श्रीर महात्मा गांधी एक ही विचार के हों पर दोनों में अन्तर है।
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महात्मा गांधी श्रादर्श ब्रह्मचर्य को प्राप्य और उसका अखण्ड पालन संभव मानते थे और इस बात में संत टॉल्स्टॉय से भिन्न मत रखते । थे, यह बात निम्न प्रसंग से स्पष्ट होगी। एक बार उनसे पूछा गया- "ब्रह्मचर्य के मानी क्या है ? क्या उसका पूर्ण पालन शक्य है ? और है तो क्या थाप उसका पालन करते हैं ?" उसका उत्तर उन्होंने इस प्रकार दिया था - " ब्रह्मचर्य का पूरा और सच्चा अर्थ है - ब्रह्मचर्य की खोज । ब्रह्म सब में बसता है, इसलिए वह खोज अन्तर्ध्यान और उससे उपजनेवाले अन्तर्ज्ञान के सहारे होती है । अन्तर्ज्ञान इन्द्रियों के सम्पूर्ण संयम के बिना अशक्य है श्रतः मन, वाणी और काया से संपूर्ण इन्द्रियों का सदा सब विषयों में संयम ब्रह्मचर्य है। ऐसे ब्रह्मचर्य का संपूर्ण पालनकरनेवाला स्त्री या पुरुष नितान्त निर्विकार होता है । -- ऐसा ब्रह्मचर्य कायमनोवाक्य से प्रखण्ड पालन हो सकनेवाली बात है, इस विषय में मुझे तिल भर भी शंका नहीं; इस संपूर्ण ब्रह्मचर्य की स्थिति को मैं अभी नहीं पहुँच सका हूँ। और इस देह में ही वह स्थिति प्राप्त करने की प्राशा भी मैंने नहीं छोड़ी है"।"
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जैन धर्म के अनुसार संसारी जीव भिन्न-भिन्न प्रकृति ( स्वभाव ) के कर्मों से बंधा हुआ है। इनमें से एक कर्म मोहनीय कहलाता है। जिस तरह मदिरापान से मनुष्य अपने मान को भूल जाता है, बसे ही मोहनीय कर्म के कारण वह मतवाला मूड होता है। इस मोहनीय कर्म के दो भेद हैं- (१) दर्शन - मोहनीय और (२) चारित्र - मोहनीय दर्शनं मोहनीय कर्म का उदय शुद्ध दृष्टि- श्रद्धा को श्रावरित करता है, उसे प्रकट नहीं होने देता। इससे धर्म में श्रद्धा - विश्वास - रुचि उत्पन्न नहीं होती । चारित्र मोहनीय का उदय चारित्र उत्पन्न नहीं होने देता। वह धर्म को जीवन में नहीं उतरने देता । इसके उदय से कषाय, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री वेद ( पुरुष के साथ भोग की अभिलाषा); पुरुष वेद (स्त्री के साथ भोग की अभिलापा ) और नपुंसक वेद ( स्त्री-पुरुष दोनों के साथ भोग की अभिलाषा ) उत्पन्न होते हैं । जैन धर्म मानता है कि इस मोहनीय कर्म का सर्वक्षय मनुष्य जीवन में संभव है। इसका अर्थ है दृष्टि और चारित्र की परिपूर्णता का होना। इस स्थिति में ब्रह्मचर्य श्रादि चारित्र गुण पूर्ण शुद्धता के साथ प्रकट होते हैं। इस तरह जैन धर्म ब्रह्मचर्य का उसके सम्पूर्ण रूप में पालन संभव मानता है ।
प्रश्नव्याकरण सूत्र ( संवरद्वार च सं० ) में कहा है " ब्रह्मचर्य सरल साधु पुरुषों द्वारा श्राचरित है (ग्रज्ज्वसाहुजणाचरितं ); श्रेष्ठ यतियों द्वारा सुरक्षित और सु-प्राचरित है ( जतिवरसारक्खितं सुचरियं); महा पुरुष, धीर, वीर, धार्मिक और धृतिवान् पुरुषों ने इसका सेवन किया है ( महापुरमधीरसूरवम्मियधितिमताण य), भव्य जनों से अनुचीर्ण है (भव्वजणाणुचिन्न) — श्रतः जब तक मनुष्य श्वेत अस्थियों से संयुक्त है, उसे सर्वथा विशुद्ध ब्रह्मचर्य का यावज्जीवन के लिए पालन करना चाहिए।" इस महाव्रत को इसकी भावना के साथ पालन करनेवाले के द्वारा यह ब्रह्मचर्यं स्पर्शित, पालित, शोधित, तीर्ण, कीर्तित, आज्ञानुसार अनुपालित होता है - ऐसा वहाँ कहा गया है। यह सर्व मैथुन-विरमण रूपं ब्रह्मचर्य की बात है । सम्पूर्ण संयम रूप ब्रह्मवर्य को भी वह प्राप्य और उसका पालन संभव मानता है- "क्लीब के लिए यह अप्राप्य है । जो तृष्णा रहित है उसके लिए दुष्कर नहीं" इ ए निधिवासस् नत्य विचिव कर
ऐसी स्थिति में सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य केवल काल्पनिक श्रादर्श नहीं, वह सम्पूर्ण साध्य है। अतीत में लोगों ने इसका पालन किया है, वर्तमान में करते हैं और भविष्य में भी करेंगे।
१ - अनीति की राह पर पृ० ५०
२- वही पृ० ५६
३- उत्तराध्ययन १६.४४
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