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भूमिका
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डोण का हाथ पकड़, उन्हें घर के अन्दर खींच लिया और प्रेमपूर्वक बोली : "मापने धर्मलाभ और प्रर्थलाभ तो दिया, पर एक लाभ और द।
मोगलाभ की याचना करती हूँ। आप तपस्वी हैं, इतने से आपका तप नष्ट नहीं होगा।"
दिछोण का मन विचलित हो गया। उनके पूर्व संस्कार जागृत हो गये। वेश्या की इच्छापूर्ति करने के लिए हो। उन्होंने मन को संतोष देने के लिए नियम लिया
कालए नियम लिया-"म यहाँ रह कर भी रोज धर्मोपदेश से दस व्यक्तियों को समझा कर प्रव्रज्या के लिये भगवान महावीर के पास भेजा करूंगा और फिर भोजन करूंगा।"
यह क्रम चलता रहा। परन्तु एक दिन नंदिणेण दस व्यक्तियों को प्रतिबोधित नहीं कर सके। उधर भोजन तैयार हो चुका था। भाजन के लिए बार-बार प्रादमी बुलाने के लिए आ रहा था. पर नटिपेण अपनी
"सान क लिए आ रहा था, पर नंदिषेण अपनी प्रतिज्ञा को पूरी किये बिना भोजन नहीं कर सकते थ । आखिर वेश्या स्वयं उन्हें बुलाने के लिए आई। नंदिपेण बोले : "अभी तक नौ ही व्यक्ति प्रतिबोधित हुए हैं। एक व्यक्ति आर प्रति बोधित हुए विना मैं भोजन नहीं कर सकता।"
गणिका हंसी में वोली : "फिर दसवें आप ही क्यों नहीं हो जाते ?"
गणिका की बात नंदिपेण के हृदय को भेद गई। उसने सोचा-"मैं केवल दसरों को प्रतिबोध देता है और स्वयं काद म फसा है। दसवां व्यक्ति में ही बनूंगा।"
___ नंदिपेण उसी समय भगवान महावीर के पास जाने के लिए तैयार हो गये। गणिका रोने लगी। नाना तरह से विलाप करने लगी। अपने विनोद के लिए माफी मांगने लगी, पर नंदिषेण का पुरुषत्व जागृत हो चका था। वे रुके नहीं। सीधे भगवान महावीर के पास पहुच। दुष्कृत्य की निन्दा की । प्रायश्चित लिया। और पुनः दीक्षित हुए। जिस..:
दीक्षा के बाद वे तपस्वी जीवन बिताने लगे और अन्त तक दृढ़ता के साथ संयम का पालन किया।
३३-मुनि आद्रक
घोर पतन के बाद उत्थान का दूसरा चित्र मुनि आर्द्रक के जीवन में मिलता है।
प्रार्द्रक अनार्य देश के निवासी थे। उन्होंने अपने आप दीक्षा ले ली। एक बार विहार करते-करते वे वसंतपुर पहुंचे और नगर के बाहर एक स्थान में ठहरे और ध्यानावस्थित हो गये। - वसंतपुर में देवदत्त नामक सेठ रहता था। उसकी पुत्री का नाम श्रीमती था। वह बड़ी सुन्दर थी । वह अन्य बालाओं के साथ क्रीड़ा करती-करती उसी स्थान में पहुंच गयी, जहाँ मुनि पार्द्रक ठहरे हुए थे। सब बालाएं खेलने लगीं। खेल शुरू करने के पूर्व बालानों ने मापस में तय किया-'सब अपना-अपना मनचाहा वर कर लें।' वालाओं ने एक दूसरे को वर के रूप में चुन लिया। श्रीमती बोली : "मैं तो इन ध्यानस्थ मुनि को ही वर के रूप में चनती हूँ।"
बालाएं परस्पर पति-रमण की क्रीड़ा कर अपने-अपने घर चली गयीं। पाक मुनि भी वहाँ से चले गये।
देवदत्त श्रीमती की सगाई की चेष्टा करने लगा। उसने वर की तलाश करनी शुरू की। श्रीमती बोली : "मैंने खेल में एक मुनि को पतिरूप में चना था। मेरे पति वे ही हो सकते हैं। मैं और किसी से विवाह न करूंगी।" more
mere मुनि वसंतपुर से विहार कर चुके थे और कहाँ थे, इसका पता नहीं चलता था। देवदत्त इससे चिन्तातुर हुआ। अकस्मात् एक दिन मुनि पुन: वसंतपुर आये। व्यवस्था के अनुसार देवदत्त ने मुनि को अपने घर गोचरी पधारने की अर्ज की। मुनि गोचरी पधारे। श्रीमती ने उन्हें पहचान लिया और बोली : “यही वे मुनि हैं, जिन्हें मैंने खेल में वररूप में चुना था।"
- सेठ ने श्रीमती के प्रण की बात कही और अपनी पुत्री से विवाह करने का अनुरोध किया। मुनि पाईक दिङ्मूढ़ हो गये। मोह का स्रोत बह चला। उन्होंने विवाह करना स्वीकार किया। केवल एक शर्त रखी : "एक पुत्र होने के बाद घर में नहीं रहेगा।" सेठ तथा श्रीमती ने शर्त स्वीकार की। --पाक और श्रीमती का विवाह हो गया और दोनों सुखोपभोग करते हुए साथ रहने लगे।
काल पाकर श्रीमती को पत्र उत्पन्न हमा। पाक जाने के लिए तयार हुए। श्रीमती बोली-“जब तक बच्चा बडा न हो जाय
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