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शील की नब बाड़
"म! ऐ मा !! एक बात कहूँ" और वह गोद में पा ही गया। माता पहले गोद में पाने के लिए मना करती थी। अब पचका दुलारने लगी। For "कहो वत्स ! क्या बात है?"
मनि मन ही मन सोचने लगे-"कैसी मूर्ख स्त्री है । अभी-अभी मना कर रही थी। मब दुलार रही है !" ...
बच्चा-बोला-"मो ! आज तूने खीर बड़ी अच्छी बनाई । रसास्वाद अच्छा, केशर की गंध और बादाम, नोजा, पिस्ता, चिटकी के से बड़ी स्वादिष्ट बनी । मैं खाने बैठा और खाता ही गया। सारी खीर खाकर ही रहा । पर मां ! के हो पाई। सारी खीर खाई, वैसे ही बार निकल पाई। मेरे हाथ-पैर सभी अंग सन्न हो गये । नीचे न गिरने दी।". ME R
"फिर क्या किया ?" माता ने लाड़ से पूछा।
"मा ! करता क्या ? खीर बड़ी सुस्वादु थी। गंवाई जा नहीं सकती थी। के में निकली खीर को मैं फिर चाट गया। मां ! वह बड़ी स्वादिष्ट लगी। चाटते-चाटते हाथ-पैरों को भी साफ कर दिया
..... माता ने वात्सल्य-भाव दिखाते हुए कहा- "बहुत अच्छा किया बेटा ! खीर गंवाई नहीं। भला छोड़ी भी कसे जाती ?" .. .
मुनि से न रहा गया । एक तरफ ये घिनौनी बातें, ऊपर से माता का लाड़ ! बच्चे ने कुत्ते का काम किया और फिर दुलार-समर्थन ? कैसी उलटी गंगा बह रही है ? वे बोल पड़े-"तुम कितनी मूर्ख हो ? यदि बच्चे के द्वारा कोई अच्छा काम होता तो सराहना भी करती।"
बस और क्या चाहिए था, नागला बोल पड़ी “बच्चा है, कर भी लिया तो क्या ? कहने चलो हो किस मुंह से । बारह वर्ण का साघुत्व - गंवाने जा रहे हो। के की तरह छोड़े काम-भोगों को चाटने जा रहे हो। वह तो बच्चा है, चाट भी लिया .! तुम इतने बड़े होकर चाटने की इच्छा रखते हो ? कहते शर्म नहीं पाती । कहना सरल है, करना कठिन ! पर खबरदार यदि घर की तरफ पैर बढ़ाया तो पैर काट लूंगी। मैंने रेवती की ठोकर खाई है । तन, मन, वचन से पुरुष मात्र की वाञ्छा नहीं करती । मापसे मेरा कोई सरोकार नहीं है। न मैं भापकी हूँ न माप मरे हैं। भाप लार चूसनेवाले न हों।"
मुनि की आँखें खुल गई। यही है नागला। मैं बड़ा नीच हूं। कहाँ मैं मुनि था, कहाँ भ्रष्ट होने जा रहा हूँ। उसने कहा-"मैं इन कामभोगों को यावज्जीवन के लिए ठुकराता हूँ। आज तुमने मुझे सत्पथ पर ला दिया, इसके लिए प्राभारी हूँ। पर गुरु के पास कैसे जाऊँ ? मैं बिना आज्ञा मा गया था।"
. नागला ने कहा : "चलिए । किसी बात का डर नहीं है।" वह उन्हें गुरु के पास ले गई। सारी बात बताई । भावदेव पुनः साधु-जीवन बीताने लगे। वे संयम में रत हो गये। और अन्त में स्वर्ग-सुखों को प्राप्त किया। वे ही अगले जन्म में जम्बूकुमार हुए। जिन्होंने प्रति उच्च वैराग्य-वृत्ति से साधुपन लिया और भगवान महावीर के तीसरे पट्टधर हो मुक्ति प्राप्त की।
र ३२-नंदिषण
किया जैन इतिहास में ब्रह्मचर्य की साधना से पतन के अनेक रोमाञ्चकारी प्रसंग मिलते हैं। पतन के बाद जो उत्थान के चित्र हैं वे और भी . हदयस्पर्शी है। नंदिषेण का प्रसंग एक ऐसा ही प्रसंग है।
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mins नंदिषेण मगधाधिपति श्रेणिक के पुत्र थे। एक बार भगवान महावीर राजगृह पधारे। नंदिषेण ने प्रव्रज्या ग्रहण की। ... का एक बार मुनि नंदिषण ने तीन दिन का उपवास किया। पारण के दिन वे भिक्षा के लिए निकले । भिक्षा के लिये भ्रमण करते-करते वे 'एक वैश्या के घर के द्वार पर आ पहुंचे। वेश्या मुनि को देख विनोद करने लगी : "मुझे धर्म-लाभ नहीं चाहिये, अर्थ-लाभ चाहिए।"
- मुनि को इस विनोद से क्रोध आ गया। साथ ही उनमें अपनी शक्ति का गर्व भी जागा। उन्होंने अपने तपोबल से वेश्या के घर में रत्नों का ढेर कर दिया। ३ वेश्या साधु की करामात को देखकर आश्चर्य-चकित रह गई। नंदिषेण अत्यन्त रूपवान थे। वेश्या उनके प्रति मोहित हो गयी। उसने
१-(क) भिक्षु-ग्रन्थ रत्नाकर (खण्ड २): जंबूकुमार चरित-ढाल ३-५ पृ० ५५६-५६३.
BE (ख) जैन भारती (१९५३) वर्ष १ अङ्क ८ पृ० ६६-१०२से संक्षिप्त । वहाँ आचार्य तुलसी द्वारा कधि कथा विस्तार से दी हुई है।
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