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दूसरी बाड़ (ढाल ३) स्त्री-कथा वर्जन
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कि जो भी कथा मन को चंचल करे, करे, उसका ब्रहाचारी वर्जन करे।
दूसरी माड़ में ब्रह्मचारी को स्त्री-कथा से दूर रहने का नियम दिया गया है। इस विषय में श्रागमों में साधारण श्राज्ञा यह है काम-राग को बढ़ावे, हास्य, श्रृंगार तथा मोह उत्पन्न करे तथा तर्प, संयम और ब्रह्मचर्य का विनाश यहाँ वर्जन करने का अर्थ है ऐसी विलासयुक्त कथा न कहे, न सुने और न उसका चिन्तन करे ।
निम्र कथाएँ रमी कथाएं है
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(१) स्त्री के मुख, नेत्र, नासिका, होठ, हाथ, पाँव, कटि, नाभि, कोख तथा अन्य अङ्ग-प्रत्यङ्गों का मोह उत्पन्न करनेवाला वर्णन | उनकी बोली, चाल-डाल, हाव-भाव और चेष्टाओं का शृङ्गारपूर्ण वर्णन * ।
(२) नव विवाहित पति-पत्नी की कथा ।
(२) विवाह करनेवाले वर-वधू की कथा।
(४) स्त्रियों के सौभाग्य- दुर्भाग्य की कथा ।
(५) कामशास्त्र की बातें ।
(६) शृंगार रस के कारण मोह उत्पन्न करनेवाली कथा-कहानी ।
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स्त्री-कथा से किस प्रकार विकार उत्पन्न होता है, यह बताने के लिए स्वामीजी ने भीबू का दृष्टान्त दिया है उसे नीबू की बात कहने, सुनने या चिन्तन करने से मुंह में पानी छूटने लगता है, उसी तरह स्त्री कथा कहने, सुनने या चिन्तन करने से ब्रह्मचारी का मन विषयराग से प्रसित हो जाता है। उसके परिणाम पलित हो जाते है" ।
शील की नव बाड़
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१-ढाल ३. दो० १-२ गा० १४; पृ० २१ टि० १
२१० २१ टि० १,२ ३- पृ० २१ टि० १, २
-ढाल ३ गा० १-४
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५-ढाल ३ गा० १२
६-२०१६ १
जिसके मन में विषयों के प्रति रस न हो, यही ब्रह्मचारी कहा जा सकता है जिस ब्रह्मचारी का मन वश में होगा उसके मुंह से विकार पूर्ण शब्द ही नहीं निकल सकते। न वह विषयको उत्तेजित करनेवाली बातों में रस लेकर उन्हें सुनेगा और न उनका चिन्तन हो
करेगा |
स्वामीजी कहते हैं जो बार-बार स्त्री-क्या करता है, उसे ब्रह्मचर्य व्रत से प्रेम नहीं रहता। उसके विषय विकार की वृद्धि होगी और अन्त में परिणाम विचलित होने से वह व्रत से च्युत होगा। इसी तरह जो स्त्री कथा सुनता है या चिन्तन करता है उसकी गति भी ऐसी ही होती है ।
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श्राज कथाएँ कही नहीं जातीं; पुस्तकों में कहानी, उपन्यास, कविता और कामशास्त्र के रूप में श्राती हैं । श्रृंगारिक चित्रों में आती हैं । श्रतः सुनने का अर्थ आज पढ़ना भी हो जायगा । आज इस बाड़ का अर्थ ऐसा भी होगा कि ब्रह्मचर्य की रक्षा करनी हो तो स्त्री-कथा न कहे, न लिखे, न पढ़, न सुने और न उसका चिन्तन करें।
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जिस अनुचित भावुकता के साथ स्त्रियों का चरित्र-चित्रण किया जाता है, उनके शरीर सौंदर्य का जैसा अश्लील और असभ्यतापूर्ण वर्ण किया जाता है, उसके विषय में महात्मा गान्धी ने कहा था - "क्या स्त्रियों का सारा सौंदर्य और बल केवल शारीरिक सुन्दरता ही में है ? पुरुषों की लालसा भरी विकारी प्राँखों की तृप्ति करने की क्षमता में ही है ?... जैसी वे हैं वैसी ही उन्हें क्यों नहीं बताया जाता ? वे कहती हैं, 'न तो हम स्वर्ग की अफसराएं है, न गुड़िया हैं, और न विकार और दुर्बलताओं की गठरी ही हैं। पुरुषों की भांति हम भी तो मानव प्राणी ही हैं ।' मुझ
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