________________
शील की नव बाड़
की आंखों से आंसू बहने लगे । माता ने आंसू पोंछते हुए, पुत्र से कहा - "बेटा! मैंने तो तुमसे पहले ही कहा था कि चारित्र पालन करना तलवार की धार पर चलने के समान है । चारित्र बड़ा भारी रत्न है। तूने उसे मिट्टी में मिला दिया। हाथ में आया हुआ चिन्तामणि रत्न गवां बैठा।"
११०
माता के वचन अरणक के हृदय में तीर की तरह चुभ गये। उसे बड़ी ग्लानि हुई। वह मन ही मन अपने आपको धिक्कारने लगा। माता ने पुत्र को अपराध अनुभव करते देख तथा पश्चाताप की भट्ठी में सुलगते देखकर कहा - "बेटा जो होना था सो हो गया। अब पाप के बदले प्रायश्चित्त करो ताकि तुम्हारी आत्मा पुनः उज्जवल बन सके ।" माता ने पुत्र को पुनः गुरुदेव की सेवा में उपस्थित किया। गुरुदेव ने उसे फिर से दीक्षित किया। अरणक ने पुनः दीक्षा लेकर अपने जीवन को धन्य बना दिया ।
एक दिन अरणक ने गुरुदेव से कहा- "हे गुरुदेव ! जिस धूप ने मेरा पतन किया, उसीसे मैं अपनी आत्मा का उत्थान करना चाहता हूं।" ऐसा कहकर उसने प्रीष्म ऋतु की कड़कड़ाती धूप में जलती हुई शिलापट्ट पर अपनी देह रख अनशन कर लिया और समभाव से अपनी आत्मा को भावित करता हुआ समाधि-मरण कर देवलोक को प्राप्त हुआ ।
कथा – २५
*
जिनरिख - जिनपाल
[ इसका सम्बन्ध ढाल ७ गाथा १० ( पृ० ४१ ) के साथ है ]
चम्पानगरी में माकन्दी नामका सार्थवाह रहता था। उसके जिनरिख और जिनपाल नामक दो पुत्र थे। उन दोनों भाइयों ने ग्यारह बार लवण समुद्र में यात्रा कर बहुत सा धन कमाया। माता-पिता के मना करने पर भी वे दोनों समुद्र में बारहवीं बार यात्रा करने के लिए रवाना हुए। समुद्र के बीच में जहाज तूफान से नष्ट हो गया । जहाज की टूटी हुई पतवार उन दोनों भाइयों के हाथ लगी। उस पर बैठ कर दोनों तैरते हुए रत्न द्वीप में जा पहुँचे। उस द्वीप की स्वामिनी रयणा देवी ने उन्हें देखा। वह कहने लगी "तुम मैं तुम्हें मार दूंगी।" इस प्रकार देवी के भयप्रद वचनों को उसके साथ काम भोग भोगते हुए रहने लगे ।"
दोनों मेरे साथ काम भोगों को सुनकर दोनों भाइयों ने उसकी
भोगते हुए वहीं रहो, अन्यथा बात स्वीकार कर ली और
एक समय लवण समुद्र के अधिष्ठायक सुस्थित देव ने रयणा देवी को लवण समुद्र की इक्कीस बार परिक्रमा करके तृण, पर्ण, काष्ठ, कचरा, अशुचि आदि को साफ करने की आज्ञा दी। उस देवी ने दोनों भाइयों से कहा- देवानुप्रियो ! जब तक मैं वापस लौटकर आऊँ तबतक तुम यहीं पर आनन्द पूर्वक रहो । यदि इच्छा हो तो पूर्व और उत्तर दिशा के वनखण्ड में जा सकते हो, किन्तु दक्षिण दिशा की तरफ मत जाना। वहां पर एक भयंकर विषधर सर्प रहता है, जो तुम्हारा विनाश कर डालेगा।" यह कह देवी चली गई ।
दोनों भाई पूर्व, पश्चिम, उत्तर दिशा के वन खण्डों में घूमते रहे। एक दिन उनकी दक्षिण दिशा की तरफ भी जाने की इच्छा हुई और वे दोनों उस दिशा की ओर निकल पड़े। कुछ दूर जानेपर उस दिशा से भयङ्कर दुर्गन्ध आने
१- ज्ञाता सूत्र के ९ वें अध्याय के आधार पर
Scanned by CamScanner