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शोल की नव बाड़
६-महात्मा गांधी यह भी देखना चाहते थे कि उनमें नपुंसकत्व की सिद्धि कहाँ तक है। उन्होंने एक बार लिखा था-"जिसकी विषयासक्ति जलकर खाक हो गई है, उसके मन में स्त्री-पुरुष का भेद मिट जाता है और मिट जाना चाहिए। उसकी सौंदर्य की कल्पना भी दूसरा रूपले लेती है। वह बाहर के आकार को देखता ही नहीं।...इसलिए सुन्दर स्त्री को देखकर वह विह्वल नहीं बन जायेगा। उसकी जननेन्द्रिय भी दूसरा रूप ले लेगी अर्थात् वह सदा के लिए विकार-रहित बन जायगी। ऐसा पुरुष वीर्यहीन होकर नपुंसक नहीं बनेगा, मगर उसके वीर्य का परिवर्तन होने के कारण वह नपुंसक-सा लगेगा । सुना है कि नपुंसक का रस नहीं जलता। जो रस मात्र के भस्म हो जाने से ऊर्ध्वरेता हो गया है, उस का नपुंसकपना बिल्कुल अलग ही किस्म का होता है। वह सबके लिए इष्ट है। ऐसा ब्रह्मचारी विरला ही देखने में आता है।" महात्मा गांधी ऐसे नपुंसकत्व के कामी थे और उनमें ऐसा नपुंसकत्व है या नहीं, इसकी जांच वे इस कठोर आँच में करना चाहते थे ।
७–महात्मा गांधी जानना चाहते थे कि उनकी अहिंसा कहीं ब्रह्मचर्य की कमी के कारण तो निस्तेज नहीं है। • एक कांग्रेस-नेता ने बातचीत के सिलसिले में १९३८ में गांधीजी से कहा- 'यह क्या बात है कि कांग्रेस अब नैतिकता की दृष्टि से वैसी नहीं रही, जैसी कि वह १९२० से १९२५ तक थी ? तबसे तो इसकी बहुत नैतिक अवनति हो गई है ।......क्या आप इस हालत को सुधारने के लिये कुछ नहीं कर सकते?" इसका उत्तर गांधीजी ने इस प्रकार दिया :
"अहिंसा की योजना में जबर्दस्ती का कोई काम नहीं है। उसमें तो इसी बात पर निर्भर रहना पड़ता है कि लोगों की बुद्धि और हृदय तक-उसमें भी बुद्धि की अपेक्षा हृदय पर ही ज्यादा-पहुँचने की क्षमता प्राप्त की जाय। - "इसका अभिप्राय हुआ कि सत्याग्रह के सेनापति के शब्द में ताकत होनी चाहिये-वह ताकत नहीं जो कि असीमित अस्त्र-शस्त्रों से प्राप्त होती है, बल्कि वह जो जीवन की शुद्धता, दृढ़ जागरूकता और संतत आचरण से प्राप्त होती है। यह ब्रह्मचर्य का पालन किये वगैर असम्भव है। इसका इतना सम्पूर्ण होना आवश्यक है, जितना कि मनुष्य के लिए संभव है।
"जिसे अहिंसात्मक कार्य के लिए मनुष्य-जाति के विशाल समूहों को संगठित करना है, उसे तो इन्द्रियों के पूर्ण निग्रह को प्रयत्नपूर्वक प्राप्त करना ही चाहिए।
"इस बात का मैंने कभी दावा नहीं किया कि मैं अपनी परिभाषा के अनुसार पूरा ब्रह्मचारी बन गया हूँ। अब भी मैं अपने विचारों पर उतना नियंत्रण नहीं रख सकता हूं जितने नियंत्रण की, अपनी अहिंसा की शोधों के लिये मुझे आवश्यकता है। लेकिन अगर मेरी अहिंसा ऐसी हो जिसका दूसरों पर असर पड़े और वह उनमें फैले, तो मुझे अपने विचारों पर और अधिक नियंत्रण करना ही चाहिए। इस लेख के प्रारंभिक वाक्यों में नेतृत्व की जिस प्रत्यक्ष असफलता का उल्लेख किया गया है, उसका कारण शायद कहीं-न-कहीं किसी कमी का रह जाना ही है" (हरिजन सेवक, २३-७-'३८) । - इसी तरह उन्होंने फिर कहा था-"जब तक यह ब्रह्मचर्य प्राप्त नहीं हो जाता, मनुष्य उतनी अहिंसा तक जितनी कि उसके लिए शक्य है. पहुंच नहीं सकता" (हरिजन सेवक, २८-१०-३६)
हर गांधीजी की यह धारणा नोग्राखाली के दंगे के समय भी रही। उनकी ब्रह्मचर्य की साधना में कोई कमी तो नहीं-यह वे जानना चाहते थे। यदि वे सच्चे ब्रह्मचारी हैं तो उसका असर वातावरण पर पड़े बिना नहीं रह सकता-यह उनका विश्वास था।
ठक्कर बापा से उनकी जो बातचीत हुई, वह इस सम्बन्ध में यथेष्ट प्रकाश डालती है : ठक्कर बापा ने पूछा- “यह प्रयोग यहाँ क्यों ?"
गान्धीजी ने उत्तर दिया-"बापा ! भूल कर रहे हो। यह प्रयोग नहीं है पर मेरे यज्ञ का सायुज्य अंग है । प्रयोग बाद दिया जा सकता है. पर कोई अपने कर्तव्य को नहीं छोड़ सकता। अब यदि मैं किसी बात को अपने यज्ञ-पवित्र कर्तव्य का अंश मानता हूं तो सार्वजनिक मत मेरे खिलाफ होने पर भी मैं उसका त्याग नहीं कर सकता। मैं तो प्रात्मशुद्धि प्राप्त करने में लगा हुआ हूं। पांच महाव्रत मेरे आध्यात्मिक प्रयत्नों
१-आरोग्य की कुंजी पृ० ३१-२
२–ब्रह्मचर्य ( पहला भाग) पृ० १००, १०२, १०३, १०४-५ - ३–ब्रह्मचर्य (दूसरा भाग) पृ० ७
MISHRASADURISES
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