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[७] ढाल गा० १४ :
इम गाथा का आधार सूत्र के निम्न लिखित वाक्य हैं:
निस्स सलु पुव्यरयं पुष्वकीलिये अगुसरमाणस्स बम्नयारिस्स धम्मचेरे संका वा कंसा वा विणिच्छा वा समुपजामेदं व लभेजा उम्मायं वा पाउगिजा देहकालिय वा रोगायक हवेजा केवलिपन्नताओ धम्माओ सेजा।
पूर्वरत] पूर्व क्रीडित काम ऐसी विचिकित्सा उत्पन्न होती है। धर्म से भ्रष्ट हो जाता है।
[८] ढाल गा० १५:
शील की नव या
- उत्त० १६६
भोगों के स्मरण से ब्रह्मचारी को ब्रह्मचर्य में शंका, अवचर्य की आकांक्षा तथा ब्रह्मचर्य का पालन करूँ या नहीं ब्रह्मचर्य का भङ्ग होता है। उन्माद उत्पन्न होता है तथा दीर्घकालीन रोगांतक होते हैं और वह केवली प्रणीत
इस गाथा का भाव आगम के नि वाक्यों से मिलता है
जे एवं पुव्वरय पुव्व कोलिय विरइसमिइजोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा आरयमण विरय गाम धम्मे जिइन्दिए वंभचेरगुते ।
प्रश्न० २४ चौथी भावना ।
इस प्रकार पूर्व-रत पूर्व-प्रीडित विरति समिति के योग से भावित अंतर आत्मावाला ब्रह्मचर्य में रत इन्द्रिय लोलुपता से रहित जितेन्द्रिय और ब्रह्मचर्य-निवाला होता है।
Das
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