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शील की नव बाड़
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• साबरमती में एक प्राश्रमवासी ने महात्माजी से कहा कि पाप जब बड़ी-बड़ी उम्र की लड़कियों और स्त्रियों के कन्धों पर हाथ रखकर चलते हैं, तब इससे लोक-स्वीकृत सभ्यता के विचार को चोट पहुँचती मालूम देती है। किन्तु पाश्रमवासियों के साथ चर्चा होने के बाद यह चीज जारी ही रही। सन् १९३६ में महात्मा गांधी के दो साथी वर्धा प्राये, तब उन्होंने महात्मा गांधी से कहा कि आपकी यह पादत संभव है कि दूसरों के लिए उदाहरण बन जाय ।
, महात्मा गांधी को यह दलील जंची नहीं। फिर भी वे इन चेतावनियों की अवसहना करना नहीं चाहते थे और उन्होंने पांच पाश्रमवासियों से इसकी जांच करके सलाह देने के लिए कहा।
. इसी बीच एक निर्णयात्मक घटना घटी। यूनिवर्सिटी का एक तेज विद्यार्थी अकेले में एक लड़की के साथ, जो उसके प्रभाव में थी, सभी तरह की प्राजादी से काम लेता था, और दलील यह दिया करता था कि वह उस लड़की को सगी बहन की तरह प्यार करता है। उसपर कोई अपवित्रता का जरा भी प्रारापण करता तो वह नाराज हो जाता। वह लड़की उस नौजवान को बिल्कुल पवित्र और भाई के समान मानती। वह उसकी उन चेष्टाओं को पसन्द नहीं करती ; आपत्ति भी करती। पर उस वेचारी में इतनी ताकत नहीं थी कि वह उन चेष्टानों को रोक सकती। - इस घटना ने गांधीजी को विचार में डाल दिया। उन्हें साथियों की चेतावनी याद आई। उन्होंने अपने दिल से पूछा कि यदि उन्हें यह मालूम हो कि वह नवयुवक अपने बचाव में उनके व्यवहार की दलील दे रहा है तो वह कैसा लगे? इस विचार के बाद महात्मा गांधी ने उपर्युक्त प्रथा का परित्याग कर दिया। उन्होंने १२ सितम्बर, १९३५ के दिन यह निर्णय वर्षा के प्राश्रमवासियों को सुनाया।
अपनी मानसिक स्थिति को उपस्थित करते हुए महात्मा गांधी ने लिखा था-"जहाँ तक मुझे याद है, मुझे कभी यह पता नहीं चला कि मैं इसमें कोई भूल कर रहा हूँ।"." यह बात नहीं कि यह निर्णय करते समय मुझे कष्ट न हुआ हो। इस व्यवहार के बीच या उसके कारण कभी कोई अपवित्र विचार मेरे मन में नहीं पाया।" उन्होंने फिर लिखा : "मेरा पाचरण कभी छिपा हुआ नहीं रहा है। मैं मानता हूँ कि मेरा आचरण पिता के जैसा रहा है और जिन भनेक लड़कियों का मैं मार्ग-दर्शक और अभिभावक रहा हूं, उन्होंने अपने मन की बातें 'इतने विश्वास के साथ मेरे सामने रखीं कि जितने विश्वास के साथ शायद और किसी के सामने न रखतीं।" A. प्रश्न उठ सकता है कि ऐसी शुद्ध मानसिक स्थिति के होने पर भी उन्होंने यह प्रयोग क्यों बन्द किया। इसका कारण महात्मा गांधी ने इस प्रकार बताया है : "यद्यपि ऐसे ब्रह्मचर्य में मेरा विश्वास नहीं, जिसमें स्त्री-पुरुष का परस्पर स्पर्श बचाने के लिए एक रक्षा की दीवार बनाने की जरूरत पड़े और जो ब्रह्मचर्य जरासे प्रलोभन के प्रागे भंग हो जाय तो भी जो स्वतंत्रता मैंने ले रखी है, उसके खतरों से मैं अनजान नहीं हूँ। इसलिए मेरे अनुसंधान ने मुझे अपनी यह आदत छोड़ देने के लिए सचेत कर दिया, फिर मेरा कन्धों पर हाथ रखकर चलने का व्यवहार चाहे जितना पवित्र रहा हो।" इस परित्याग के समय महात्माजी ने यह भी सोचा : "मेरे हरेक पाचरण को हजारों स्त्री-पुरुष खब सूक्ष्मता से देखते हैं। मैं जो प्रयोग कर रहा हूं, उसमें सतत जागरूक रहने की पावश्यकता है। मुझे ऐसे काम नहीं करने चाहिए जिन का बचाव मुझे दलीलों के सहारे करना पड़े।" : साधारण लोगों को चेतावनी देते हुए महात्मा गांधी ने कहा-"मेरे उदाहरण का कभी यह अर्थ नहीं था कि उसका चाहे जो अनुसरण करने लग जाय।.....मैंने इस प्राशा से यह निश्चय किया है कि मेरा यह त्याग उन लोगों को सही रास्ता सुझा देगा, जिन्होंने या तो मेरे उदाहरण से प्रभावित होकर गलती की है या यों ही।" -
इस त्याग के थोड़े दिनों के बाद (२८-६-३५ को) उन्होंने एक बहिन को लिखा-........ मेरे त्याग के विषय में जब तू सब जानेगी तब तू भी मुझसे सहमत होगी, ऐसा मुझे विश्वास है।" उसी बहिन को उन्होंने पुनः (६-५-३६ को) लिखा : "लड़कियों के कन्धे पर हाथ रखना बन्द किया, उसके साथ मेरी विषय-वासना का कोई सम्बन्ध नहीं।"
१-हरिजन सेवक, २७-६-३५ : ब्रह्मचर्य (प० भा०) १०६७-६६ २-बापूना पत्रो-५ कु. प्रेमाबहेन कंटकने पृ० २३५ ३-वही पृ० २३६
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