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भूमिका
पहली और तीसरी बाड़ में जो नियम दिए गये हैं, उनकी आवश्यकता टॉल्स्टॉय भी महसूस करते थे । उन्होंने एक बार कहा : "कोई पूछ सकता है कि हम अपने जाति के व्यक्तियों के साथ जिस मित्रता से रहते हैं, वैसे स्त्री पुरुष जाति के साथ या पुरुष स्त्रीजाति के साथ मित्रतापूर्वक क्यों नहीं रह सकते क्या यह बुरा है? ठीक है, यदि हम अपने हृदय को कलंकित न होने दें, तो हम जरूर ऐसा कर सकते हैं।...... पर एक सच्चा और विवेकशील प्राणी फौरन कहेगा कि ऐसे सम्बन्ध बड़े नाजुक होते हैं ।" परस्पर सान्निध्य न करने के पीछे उन्होंने यह मनोवैज्ञानिक कारण बतलाया है : "यदि आदमी अपने को धोखा न दे, तो वह ध्यान से देख सकता है कि बनिस्बत पुरुषों के सान्निध्य के उसे स्त्रियों के सान्निव्य में एक विशेष श्रानन्द आता है । वे आपस में जल्दी-जल्दी मिलने की उत्कण्ठा रखने लगते हैं । ""प्राध्यात्मिक प्रेम के क्षेत्र से तुच्छ वैषयिक क्षेत्र में उतर आना सबके लिए साधारण है ।"
इस सम्बन्ध में विनोबाजी लिखते हैं: "मैं तो मानता हूँ कि पुरुष पुरुष के बीच भी शारीरिक परिचय होना गलत बात है । परिचय तो मानसिक होना चाहिए। शारीरिक परिचय भी केवल सेवा के वास्ते जितना आवश्यक है, उतना ही होना चाहिए। हम देखते हैं कि पुरुष नाहक दूसरे पुरुष मित्र के गले में हाथ डालते हैं । इस तरह जो चलता है वह हमें पसन्द नहीं श्राता है । शरीर परिचय की जो एक सामान्य मर्यादा है वह न सिर्फ स्वी धीर पुरुष के बीच होनी चाहिए, बल्कि पुरुष पुरुष के बीच और स्त्री-नवी के बीच भी यही मर्यादा होनी चाहिए। यह दर्शन हो गया है कि स्त्री और पुरुषों में भेद किया जाय। स्वी-पुरुषों का भेद तो हम आकृतिमात्र से ही पहचानते हैं । अन्दर की प्रारमा तो एक ही है। मनुष्य ने माना है कि दोनों के बीच मर्यादाएं होनी चाहिए। लेकिन यह कोई सर्वोत्तम वस्तु नहीं है। होना तो यह चाहिए कि दोनों खुले दिल से एक-दूसरे के सामने श्रायें। वैसे शरीर सम्पर्क की एक सर्व सामान्य मर्यादा हो । पुरुष पुरुष के बीच भी ज्यादा सम्पर्क न हो ४ ।"
पाठक देखेंगे कि तीसरी बाढ़ में स्त्री-परिचय, स्त्री-संसर्ग, यदा-कदा मिलना-जुलना आदि के परिवर्तन की जो बात कही गयी है, वह आधुनिक चिन्तकों द्वारा भी समर्थित है ।
इस बाढ़ का एक नियम सारा ध्यान आकर्षित करने जैसा है। ब्रह्मचर्य की रक्षा के उपायों को बताते हुए पं० [माणाधरजी ने लिखा है- "मा स्त्री कुर" इसका पर्व है-स्त्रियों का सरकार मत करो। धाचाराङ्ग में कहा है “जो संपसारण, णो ममाए णो कयकिरिए अर्थात् स्त्रियों के साथ एकान्त का सेवन मत करो, उनके प्रति ममत्व मत करो, उनके प्रति कृतक्रिय मत हो ।" यहाँ स्त्री के प्रति दाक्षिण्यभाव के प्रदर्शन की मनाही की गई है।
आचार्य विनोबा भावे ने लिखा है: "आजकल समाज में सुधरे हुए लोगों में अधिकाधिक कृत्रिमता आ गयी है । इसलिए स्त्री के लिए ज्यादा श्रादर दिखाना, जिसे 'दाक्षिण्य भाव' कहते हैं, चलता है। स्त्री को देवी कहा जाता है। इस तरह एक बाजू से तो स्त्री के लिए घृणा और तिरस्कार होता है, अपात्रता होती है और दूसरी तरफ से स्त्री के लिए अधिक भावना होती है। पुरुष अपने को स्त्री का सेवक मानता है। हम मानते है कि इससे विषय-वासना बढ़ती ही है जैसे स्त्री के लिए कोई पात्रता समझना गलत है, उसी तरह स्त्री के लिए अधिक भाव या ऊँची भावना रखना भी गलत है। होना तो यह चाहिए कि श्रात्मा में तो स्त्री और पुरुष का भेद नहीं है, यह भेद तो शरीर का है, इसका भान हो जाय । यह भान होने से वासना से निवृत्त होना आसान हो जायगा " । "
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स्त्री और पुरुष के सम्बन्ध में दोष पैदा होने के कारणों को गिनाते हुए श्री किशोरलाल मधवाना ने मनावश्यक स्त्रीदाक्षिण्य' को भी गिनाया है। उनके विचारों की भूमिका इस प्रकार है : "स्त्रियों को अपने शील की रक्षा के लिए हमेशा अधिक अभिमान और अधिक चिता रहती है। इसलिए जब मैं स्त्री के पतन की बात सुनता हूँ, तब कुछ दिङ्मूढ सा वन जाता हूँ ।
इङ्गलैण्ड के मशहूर मानसशास्त्री
१ - स्त्री और पुरुष पृ० १३६-३७ २वही
१३- स्त्री और पुरुष पृ० १४२
४ कार्यकर्ता वर्ग पृ० ४२,४३,४४ ५ कार्यकर्ता वर्ग ४५ इस्त्री-पुरुष मर्यादा ५० ३६-२०
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