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परिशिष्ट - क : कथा और दृष्टान्त
के लिए आतुर हो गया। उसने इष्ट देवता का स्मरण किया। देव सुप्र द्रौपदी को पद्मनाभ राजा की अशोक वाटिका में
उठा लाया ।
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पद्मनाभ द्रौपदी को सोच करते देख बोला – “देवानुप्रिये ! तुम मन के संकल्पों से आहत न बनो। किसी प्रकार की चिन्ता न करो। मेरे साथ विपुल काम भोग भोगती हुई रहो।" इस पर द्रौपदी ने कहा- "मैं छः मास कृष्ण वासुदेव की राह देखूँगी । अगर वे नहीं आयेंगे तो मैं आपकी इच्छा के अनुसार बर्तगी ।”
अब द्रौपदी छठ - छठ का तप करती हुई कन्याओं के अन्तःपुर में रहने लगी ।..
पाण्डु राजा जब किसी भी तरह द्रौपदी का पता नहीं लगा सके तब कुन्ती देवी को कृष्ण वासुदेव के पास द्रौपदी का पता लगाने के लिए भेजा । कुन्ती देवी पाण्डु राजा की आज्ञा प्राप्त कर हाथी पर आरूढ़ हो द्वारवती पहुँचीं और उद्यान में ठहरी जय फौटुम्बिक पुरुषों द्वारा कृष्ण वासुदेव को कुन्ती के आगमन का समाचार मिला तो वे स्वयं कुन्ती से मिलने उद्यान में गये । कुन्ती देवी को नमस्कार कर उसे साथ ले अपने आवास आये। भोजन हो चुकने के पश्चात् -कृष्ण ने कुन्ती देवी से उसके आने का प्रयोजन पूछा। कुन्ती बोली “पुत्र युधिष्ठिर के साथ द्रौपदी सुख पूर्वक सो रही थी। जागने पर वह दिखाई नहीं दी । न जाने किस देव, दानव, किंपुरुष, गंधर्व ने उसका अपहरण किया है। पुत्र ! मैं चाहती हूं तुम स्वय द्रौपदी देवी की मार्गणा - गवेषणा करो, अन्यथा उसका पता लगाना संभव नहीं। कृष्ण बोले : "पितृभगिनी ! मैं द्रौपदी देवी का पता लगाऊँगा। उसके श्रुति, क्षति, प्रवृत्ति का पता लगते ही वह जहाँ कहीं भी हो उसको मैं स्वयं अपने हाथों ले आऊँगा। इस प्रकार कुन्ती देवी को आश्वासन दे उसको आदर सत्कार पूर्वक विदा किया। कृष्ण ने अपने सेवकों को द्रौपदी का पता लगाने के लिए चारों ओर भेज दिया।
एक दिन कृष्ण वासुदेव अपनी रानियों के साथ बैठे हुए थे इतने में कच्छु नारद वहाँ आये। कृष्ण ने उनसे पूछा आप अनेक स्थानों में जाते हैं। क्या आपने कहीं द्रौपदी की भी बात सुनी ?" नारद बोले- "देवानुप्रिय एक बार मैं धातकी खण्ड के पूर्व दिशा के मध्य दक्षिणार्द्ध भरत क्षेत्र में अमरकंका राजधानी में गया था। वहां पद्मनाभ राजा के राज भवन में मैंने द्रौपदी को देखा ।” कृष्ण बोले – “लगता है यह आप देवानुप्रिय का ही कर्म है।” कृष्ण के ऐसा क नारद आकाश मार्ग से चल दिये।
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कृष्ण ने दूत बुलाकर उसे कहा : "तुम हस्तिनापुर जाकर राजा पाण्डु से निवेदन करो : "द्रौपदी देवी का पता उग गया है। पाँचों पाण्डव चतुरंगिणी सेना से संपरिवृत हो पूर्व की दिशा के वैतालिक समुद्र के तीर पर पहुंचे और वहाँ मेरी बांट जोहते हुए रहे।
कृष्ण वासुदेव ५६ हजार योद्धाओं को साथ वैतालिक समुद्र के किनारे पर पांडवों से मिले और वही स्कंधावारछावनी स्थापित की।
कृष्ण ने अपनी समस्त सेना को विसर्जित किया और आप स्वयं पांच पाण्डवों सहित छः रथों में बैठ लवण समुद्र के बीचोबीच होते हुए आगे बढ़े और जहां अमरकंका राजधानी थी जहाँ नगरी का अम उद्यान था वहाँ रथ को ठहराया। फिर अपने दारुक नामक सारथी को बुलाकर बोले “जाओ अमरकंका के महाराज पद्मनाभ से कहो तुमने कृष्ण वासुदेव की बहन द्रौपदी का अपहरण किया है। यह बहुत बुरा किया फिर भी अगर जीवित रहना चाहते हो तो द्रौपदी को कृष्ण वासुदेव के हाथों में सौंप दो, अन्यथा युद्ध के लिए तैयार हो जावो ।”
सारथी कृष्ण वासुदेव की आज्ञानुसार पद्मनाभ के पास पहुँचा और हाथ जोड़ उसे जय विजय शब्द से बंधा कृष्ण वासुदेव का सन्देश कह सुनाया ।
पद्मनाभ सारथी द्वारा सुनाये गये सन्देश से अत्यन्त कुद्ध हुआ और भृकुटी बड़ा बोला मैं कृष्ण वासुदेव की
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