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भूमिका
३० - बाल ब्रह्मचारिणी ब्राह्मी और सुन्दरी
हम पहले यह बता चुके हैं कि जैन धर्म में पुरुष और स्त्री दोनों को समानस्य से ब्रह्मचर्य पालन का उपदेश दिया गया है। इस उपदेश का स्थायी प्रभाव यह हुआ कि जैन इतिहास के हर युग में ऐसी प्रादर्श स्त्रियों देखी जाती है, जिन्होंने अतुलित मात्मबल के साथ भाजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया और माध्यात्मिक क्षेत्र में पुरुषों के समान ही दीस हुई। जैन इतिहास के अनुसार ऋषभदेवजी जैनों के आादि तीर्थंकर है। उनके ब्राह्मी और सुन्दरी दो पुत्रियाँ थीं और दोनों ही ने आजीवन ब्रह्मचर्य का पालन किया ।
महात्मा गांधी ने एक पत्र में लिखा था- .........हमारी स्त्रियों को पत्नी बनना श्राता है, बहन बनना नहीं श्राता । यह मेरे खयाल से तो स्वयंसिद्ध है । जगत् की बहन बनने का गुण मुश्किल से श्राता
बहन बनने सच्ची
में बड़ी त्यागवृत्ति की जरूरत है। जो पत्नी बनती है, वह पूरी तरह बहन बन ही नहीं सकती । सारी दुनिया की बहन हो सकती है। पत्नी अपने को एक पुरुष के हवाले कर देती है ।
बहन
है । जगत् की बहन तो वही बन सकती है, जिसमें ब्रह्मचर्य स्वाभाविक बन गया हो और सेवाभाव बहुत ऊंचे दर्जे तक पहुँच गया हो ।" ब्राह्मी और सुन्दरी का जीवन महात्मा गांधी के विचारों के अनुसार ही स्वाभाविक ब्रह्मचर्य का जीवन था और दोनों जगत्-भर की सेवा परायण बहिनें थीं।
प्रिया वि
रूपमदेवजी के दो रानियाँ थीं, एक सुमंगला और दूसरी सुनंदा सुमंगला के ब्राह्मी और भरत यमजरूप से उत्पन्न हुए और इसी तरह सुनंदा के सुंदरी और बाहुबल सुमंगला के १८ पुत्र और हुए। इस तरह ब्राह्मी के ९९ सगे भाई थे और सुंदरी के केवल एक बाहुबल ।
दोनों बहिनों ने ६४ कलाएँ सीखीं। दोनों ही उत्तम स्त्री के बतीस लक्षणों से सुशोभित थीं। ब्राह्मी ने अठारह लिपी सीखी। दोनों ही बहिनें बड़ी शीलवती थीं। उनके मन में कभी विषय वासना श्राती ही नहीं थी। दोनों बहिनों ने अपने पिता ऋषभदेवजी से विनती की : "शील प्रिय है। हमारी सगाई न करें हम किसी की स्त्री कहलाना पसन्द नहीं करतीं हमें सांसारिक प्रियतम की चाह नहीं।" मदेवजी बोले : "तुम दोनों की करनी में कोई कमी नहीं। अच्छा है कि तुम लोगों ने इस मोह जाल को छिन्न-भिन्न कर दिया ।" पुत्रियों की इच्छा से उन्होंने दोनों बहिनों का विवाह नहीं किया। बाद में ऋषभदेवजी ने प्रज्या ले ली और प्रथम तीपंकर के रूप में प्रसिद्ध हुए। "ब्राह्मी को मैं उत्तम स्त्री-रख
ब्राह्मी अत्यन्त रूपवती थी। भरतजी अपनी बहिन के प्रति मोहित हो गए। उन्होंने विचार किया
के रूप में स्थापित करूं धीर धन्तःपुर में उसे प्रमुख महारानी रूप में रखूं।"
ब्राह्मी की इच्छा दीक्षा लेने की थी। उधर भरत उससे प्रेम करते थे, अतः दीक्षा की अनुमति नहीं देते थे । मालूम हुई तो उसने अपने रूप की हानि करने के लिए दो-दो दिन के उपवास की तपस्या प्रारंभ
जब ब्राह्मी को भरत के मोह की बात
कर दी। पारण में जल के साथ एक लूखा प्रन्न लेती ।
भरत का मोह नहीं छूटा ।
ब्राह्मी भी सुदीर्घकाल तक इसी तरह तपस्या करती रही।
इस तपस्या से उसका फूल-सा शरीर मुरझा गया। ब्राह्मी के शरीर को इस प्रकार क्षीण देख भरत का मोह दूर हुआ। उसने ममत्व
छोड़ ब्राह्मी को दीक्षा की अनुमति दी। ब्राह्मी और सुंदरी दोनों बहिनें दीक्षित हुई और अपनी साधना से दोनों ने मुक्ति प्राप्त की। स्वामीजी ने दोनों बहिनों के चरित्र को इस प्रकार उपस्थित किया है" :
रिषभ राजा रे राणी दोय हुई, सुमंगला सुनंदा जूई ए जूई । दोन दोष बेटी जाई, माझी में सुंदरी बाई ज्यां पूरव भव कीनी करणी, बेहूं री काया कोमल कंचन वरणी ।
वले रूप में कमी नहीं कांई ॥ ते स्वारथ सिद्ध थी चव आई, भरत बाहुबल रे जोडे जाई । बेई बायां रे वा सो भाई भरत बाहुबल दोय मोटा बडे भाई अहाणू डुवा छोटा। चित्त में घणी ज्यांरे चतुराई ॥ ब्राह्मी रे हुवा निनाणू वीरा, जामण जाया अमोलक हीरा । - भरत चक्रवर्ति नीं पदवी पाई ॥
१ - महादेव भाभी की डायरी (पहला भाग) पृ० ३८३ -मि- पन्थ खाकर (ख) भरत चरिता १६, १०४५०-५१
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