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शील की नव वाड़
जहाँ तक पता चला, इस विषय में पहली आपत्ति नोपाखाली में गांधीजी के टाइपिस्ट श्री परशुराम की तरफ से पाई। उन्होंने तीन : बार महात्मा गांधी से बातचीत की और चौथी बार में फूलस्केप साइज के १० पेज जितने लम्बे पत्र में अपनी भावना महात्मा गांधी के सामने रखी। श्री प्यारेलालजी इन सब की नोंच तक नहीं लेते। श्री बोस ने भी न बातचीत का सार दिया है और न उस पत्र की बातों का उल्लेख किया है। एक बातचीत में श्री परशुराम के विचार किस रूप में फूट पड़े, इसका वर्णन उन्होंने इस प्रकार दिया है : “गांधीजी की दृष्टि चाहे जो भी हो, पर एक साधारण मनुष्य की तरह मुझे कहना चाहिए कि गांधीजी को ऐसा मौका नहीं देना चाहिए कि जिस से उनके प्रति कोई गलत धारणा बन पाय। यदि गांधीजी के व्यक्तिगत आचरण पर आक्षेप पाते हैं, तो जिस उद्देश्य के लिए वे खड़े हुए हैं. वह क्षतिग्रस्त होता है। यह एक ऐसी बात है जो मुझसे सहन नहीं होती। जब मैं स्कूल में था तब मैं अपने साथियों के साथ इसी बात पर मुक्कामुक्की करने लगा था कि उन्होंने महात्मा गांधी के प्राचरण के प्रति दोषारोपण किया था। और भी अधिक, क्या उन्होंने अपने सेवाग्राम के साथियों से यह प्रतिज्ञा नहीं की थी कि वे स्त्रियों को अपने संसर्ग से दूर रखेंगे?"
___ महात्मा गांधी ने अपनी स्थिति को परिष्कृत करते हुए कहा : "यह सत्य है कि मैं स्त्री कार्यकत्रियों को अपनी शय्या का व्यवहार करने देता हूँ। समय-समय पर यह आध्यात्मिक प्रयोग किया गया है। मुझ में विकार नहीं, ऐसी मेरी धारणा है। फिर भी यह असंभव नहीं कि कुछ लवलेश बच गया हो और इससे उस लड़की के लिए संकट उपस्थित हो सकता है जो प्रयोग में शरीक हो। मैंने यह पूछा है कि कहीं बिना इच्छा भी, मैं उनके मन में थोड़ा भी विकार उत्पन्न करने का निमित्त तो नहीं हुआ? मेरे सुप्रसिद्ध साथी नरहरि (परीख) और किशोर लाल (मशरूवाला) ने इस प्रयोग पर आपत्ति उठाई थी और उनकी एक शिकायत यह थी कि मुझ जैसे उत्तरदायित्ववाले नेता का उदाहरण दूसरों पर क्या असर डालेगा?"
इस वार्तालाप से पता चलता है कि यह प्रयोग पहल भी हुआ और वह अन्य स्त्रियों के साथ रहा। 'श्री परशराम ने जो सुझाव रखे वे महात्मा गांधी को स्वीकार नहीं हुए अत: साथ छोड़ कर चले गये। यह ता०२ जनवरी १९४७
इसके बाद अपने एक मित्र को महात्मा गांधी ने पत्र लिखा जिसमें श्री परशुराम के चले जाने का मुख्य कारण बताया गया था, उनका गांधीजी के सिद्धान्तों में विश्वास न होना और मनु का उनके साथ एक शय्या पर सोना। इस पर टिप्पणी करते हुए श्री बोस लिखते हैं कि गांधीजी का ऐसा लिखना परशुराम के प्रति अन्याय था। उनका कहना है—गांधीजी के सिद्धान्तों में परशुराम की पूर्ण श्रद्धा थी। श्री परशुराम की मुख्य शंका मनु वहन के साथ के प्रयोग को लेकर नहीं थी, बल्कि अन्य स्त्री-पुरुषों की स्थिति के विषय को लेकर थी। उनके यह समझ में नहीं पा रहा था कि साधारण स्तर पर रहे हुए स्त्री-पुरुषों का सर्श किस तरह एक आध्यात्मिक आवश्यकता हो सकती है।
श्री बोस के विवरण से पता चलता है कि इस बार भी श्री मशरूवाला और श्री नरहरि परीख आपत्ति करनेवालों में थे। जनवरी '४७ के अन्तिम सप्ताह में उनका आपत्तिकारक पत्र पहुंचा । श्री मशरूवाला के पत्र का उत्तर महात्मा गांधी ने तार से दिया, जिस में लिखा गया था कि वे ता.१-२-'४७ के सार्वजनिक वक्तव्य को देखें। पत्र दिया जा रहा है । इसके बाद किशोरलाल मशरूवाला और नरहरि परीख का तार पाया, जिसमें उन्होंने ता० १-२.'४७ के पत्र की पहुंच देते हुए लिखा था कि वे हरिजन पत्रों के कार्यभार से मुक्त हो रहे हैं। पत्र देखें । फरवरी के अन्तिम सप्ताह में भी मशरूवाला का पत्र था । श्री बोस के अनुसार उस पत्र का सार यह था कि स्त्रियों के साथ के व्यवहार १-My days with Gandhi pp. I27, 131, I34 २-वही पृ० १३३-३४ ३-वही पृ० १३४ ४-My days with Gandhi p. 137: Only, his point of view was the point of view of the com
mon man; he did not realise how contact with men and women on a common level might
be a spiritual need for Gandhiji. ५-वही पृ. १५४ -वहीं पृ०- १५५ i ta
... ७—वही पृ० १५८
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