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________________ ber कथा - २३ : मणिरथ- मदनरेखा [ इसका संबंध ढाल ५ गाथा १३ ( पृ० ३१ ) के साथ है ] अवंति जनपद में सुदर्शन नामक एक नगर था। वहाँ मणिरथ नामक राजा था। युगबाटु नामक उसका एक छोटा भाई युवराज था | युगवाहु की पत्नी मदनरेखा थी । वह अतीव सुन्दर और परम-श्राविका थी । एक दिन मणिरथ की दृष्टि मदनरेखा पर पड़ी। उसके अनिंद्य रूप-लावण्य को देखकर वह मुग्ध हो गया। उसका रूप उसके मस्तिष्क में चक्कर काटने लगा । उसने उसके प्रेम को किसी भी मूल्य पर प्राप्त करने का निश्चय किया । इस विचार से उसने मदनरेखा के घर बहुमूल्य वस्त्र एवं आभूषण भेजना शुरू किया। वह भी विशुद्ध भाव से जेठ की भेजी हुई नाना प्रकार की बहुमूल्य सामग्रियों को स्वीकार कर लेती। उसे यह भान तक नहीं था कि मणिरथ जो वस्तुएँ भेजता है, उसके पीछे उसकी कुत्सित वासना काम कर रही है । मदनरेखा विशुद्ध भावना से ही उन वस्तुओं को अंगीकार करती थी, किन्तु मणिरथ समझने लगा कि वह भी उससे प्यार करने लगी है । एक दिन मौका पाकर उसने दासी के द्वारा मदनरेखा को कहलाया "मालय सम्राट् मणिरथ तुमसे प्रेम करता है। वह तुम्हारे रूप-यौवन पर अपना समस्त साम्राज्य तुम्हारे चरणों में रखने को तैयार है । तुम्हें जो सुख चाहिए युवा से नहीं मिलता। वह सुख तुम मणिरथ की हृदय साम्राज्ञी बनने पर प्राप्त कर सकोगी।" मणिरथ की स्वार्थपूर्ण घृणित भावना का अब उसे पता लगा। उसने यदि भविष्य में एसा कहा तो तेरी जीभ निकलवा दूँगी । जा ! साम्राज्य से तो बघा, बल्कि तीन लोकों के वैभव से भी अपने आपके लिए ऐसी अनीति शोभा नहीं देती । आपसे प्रेम यह सन्देश सुनकर मदनरेखा स्तब्ध हो गई। दासी से कहा - "दुष्टे ! आज तूने ऐसी बात कही है। मणिरथ से कह दे कि मदनरेखा तुम्हारे इस छोटे से शील तसे विचलित नहीं हो सकती। आप सम्राट् हैं। तो दूर रहा बल्कि वह आप को देखना भी पाप समझती है।" दासी ने वहाँ से मणिरथ के पास आकर सर्व वृत्तान्त कह सुनाया । मणिरथ अपनी असफलता पर मन ही मन ॐ मलाने लगा। उसने सोचा- युगबाहु के रहते मदनरेखा का प्रेम पाना असंभव है। अतः इस काँटे को हटाकर ही में मदनरेखा के प्रेम को प्राप्त कर सकता हूं। इस तरह कामुक भावना के वशीभूत होकर वह अपने भाई की हत्या का अवसर ढूँढ़ने लगा। सायंकाल का समय था । मन्द मन्द सुहावनी हवा चल रही थी । युगबाहु अपनी प्रियतमा के साथ उपवन में घूमने के लिए निकल पड़ा। मदनरेखा अपने प्रियतम के लिए पुष्प चुन चुनकर माला गूंथने में तहीन थी। युगबाहु उतामण्डप में विश्राम कर रहा था और अस्ताचलगामी दिवाकर को देखने में लवलीन था। इधर मणिरथ भी घूमता हुआ उपवन की ओर आ निकला। उसने युगबाहु को लता-मण्डप में विश्राम करते हुए देख लिया । वह अकेला एकान्त स्थान विश्राम कर रहा था। राजा ने उचित अवसर पाकर पीछे से छिपकर युगवाहु पर वार किया। वह पायल होकर भूमि पर गिर पड़ा। मणिरथ वहाँ से भागा। रास्ते में वह साँप का शिकार बना और मृत्यु को प्राप्त होकर नरक में गया । मदनरेखा नेता मण्डप से कराहने की आवाज सुनी। यह दौड़कर वहाँ आई । खून से लथपथ पति को १-- उत्तराध्ययन सूत्र अ० ९ की नैमिचन्द्रीय टीका के आधार पर Scanned by CamScanner
SR No.034114
Book TitleShilki Nav Badh
Original Sutra AuthorShreechand Rampuriya
Author
PublisherJain Shwetambar Terapanthi Mahasabha
Publication Year1961
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size156 MB
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