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कोट ढाल ११ : टिप्पणियाँ
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—स्पर्श काम-ग्राह्य है । स्पर्श शरीर का विषय है। प्रिय स्पर्श राग का हेतु है और अप्रिय स्पर्श द्वेव का। जो इन दोनों में समभाव र है. वह राग है।
मग भाव गहत
राहे तु मनुन्नमा तं दोसहे ं अमणुन्नमाहु, समो य जो तेसु स वीयरागो ॥
- भाव मन-ग्राह्य है । भाव मन का विषय है। प्रिय भाव राग का हेतु है और अप्रिय भाव द्वेप का।
है।
- उत्त० ३२ : ८७
इन दोनों में समभाव रखता है, वह
रज ऐसे समभाव या वीतरागता रूपो कोट में ही सुरक्षित रह सकता है।
स्वामीजी कहते हैं कि शील रूपी यह बताया जा चुका है कि किस तरह सब व्रतों में महान् है शील एक महामूल्यवान रत्न है जिसको रक्षा के लिए विशेष उपाय करने की आवश्यकता है। इसीलिए भगवान् ने विषयों के प्रति समभाव रूपी इस कोट को ब्रह्मचर्य की समाधि का दसवां स्थानक वतलाया है।
जो
[४] डाल गाथा ८-११:
आठवीं गाया में यह बताया गया है कि यह कोट किस प्रकार भंग होता है और इसके भंग होने से ब्रह्मचारी को क्या हानि होती है। स्वामीजी
कहते हैं जो शब्दादि विषयों में रागादि रखता है. वह इस कोट को खंडित करता है उनके विनाश से ब्रह्मचर्य रूपी शस्य विनष्ट होता है। शील रूपी रत्न की रक्षा करनी कोट के अडित रहने से सब विघ्न दूर हो जाते हैं. शील अखंड रहता है और इससे अविचल मोक्ष की प्राप्ति होती है।
कोट के भंग होने से वाड़े भी चकनाचूर हो जाती है और हो तो कोट को सुरक्षित रखने का हर प्रयत्न करना चाहिये ।
आगम में कहा है :
सड़े विरतो मणुओं विसोगो, एग दुक्लोहपरम्परेण
न लिप्पईं भवमज्झे वि संतो, जलेण वा पोक्खरिणीपलासं ॥
- उत्त० ३२ : १००
एविंदियत्थाय मणस्स अत्था, दुक्खस्स हेउ मणुयस्स रागिणी । ते चैव थोवं पि क्याइ दुख न वीयरागस्स करेति किचि इन्द्रियों के और मन के विषय रागी मनुष्य को ही दुख के हेतु होते हैं। ये विश्य वीतराग को कदाचित् किंचित् मात्र थोड़ा भी दुःख नहीं पहुंचा सकते।
- उत्त० ३२ : ४७
- शब्द, रूप, गंध, रस, स्पर्श और भाव के विषयों से विरक्त पुरुष शोक रहित होता है। वह इस संसार में वसता हुआ भी दुःख समूह की परम्परा से उसी तरह लिप्त नहीं होता जिस तरह पुष्करिणी का पलाश जल से।
सोयराग सकियो, सावरणं
सव्वं सओ जान पासर य, अमोह होइ निरंतराए
अणासवे झाणसमाहिजुत्ते, आउक्खए मोक्खमुवे सुद्धे ॥
।
तहेव जं दंसणमावरे, जं चन्तरायं पकरेइ कम्मं ॥
- उत्त० ३२ : १०८
- जो वीतराग है वह सब तरह से कृतकृत्य है। वह क्षणमात्र में ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय कर देता है और इसी तरह से जो दर्शन को ढंकता
है, उस दर्शनावरणीय और विघ्न करता है, उस अन्तराय-कर्म का भी क्षय कर डालता है।
उत्त० ३२ : १०९
- तदन्तर वह आत्मा सब कुछ जानती देखती है तथा मोह और अन्तराय से सर्वथा रहित हो जाती है। फिर आस्रवों से रहित, ध्यान और समाधि से युक्त वह विशुद्ध आत्मा, आयु समाप्त होने पर मोक्ष को प्राप्त होती है।
सो तस्स सव्वस्स दुहस्स मुक्को, जं वाहई सययं जंतुमेयं । दीहामयं विप्पमुको पसत्थो, तो होइ अच्चंत सुही कयत्थो ।
- उत्त० ३२ : ११०
फिर वह सर्व से, जो जीव को सतत् पीड़ा देते हैं. मुक्त हो जाती है। दीर्घ रोग से विप्रमुक्त हो वह कृतार्थ आत्मा अत्यन्त प्रशस्त
सुखी होती है।
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