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भूमिका ..
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पीछे की ओर, ताकता है और गड्ढा, गहन और छिपा हुमा स्थान देखता है, उसी प्रकार निर्बल साधक अनागत भय की आशंका से . प्रकल्प्य की शरण ले लेते हैं।" .
- इस विषय में संत टॉलस्टॉय ने जो विचार दिये हैं, वे आगम-गाथानों की अनुभूत टीका से लगते हैं। वे कहते है : "हम कई बार पहले ही से अपनी विजय की रोचक कल्पना में तल्लीन हो जाते हैं, यह एक भारी कमजोरी है । ऐसे काम में हम लग जाते हैं, जो हमारी शक्ति से वाहर है । जिसका पूरा करना न करना हमारी शक्ति के अन्दर की बात नहीं।...क्योंकि पहले तो हम इस बात की कल्पना नहीं कर सकते कि हमें आगे चल कर किन-किन परिस्थितियों में से गुजरना होगा।...दूसरे, इस तरह की एकाएक प्रतिज्ञा करने से हमें अपने उद्देश की ओर-सर्वोच्च ब्रह्मचर्य के निकट जाने में कोई सहायता नहीं मिलती; उलटे भीतर कमजोर रह जाने के कारण, हमारा पतन अलबत्ता शीघ्र होता है।
"पहले तो लोग बाहरी ब्रह्मचर्य को ही अपना उद्देश्य मान लेते हैं। फिर या तो वे संसार को छोड़ देते हैं या स्त्रियों से दूर-दूर भागते. हैं । इतने पर भी जब कामवासना से पिण्ड नहीं छुटता, तब अपनी इन्द्रियों को ही काट डालते हैं।
"दूसरे, केवल बाहरी ब्रह्मचर्य को यह समझ कर प्रादर्श मान लेना गलत है कि हम कभी तो जरूर उस तक पहुंच जायंगे, क्योंकि ऐसा करने से प्रत्येक प्रलोभन और प्रत्येक पतन उसकी आशाओं को एकदम नष्ट कर देता है और फिर इस बात पर से भी उसका विश्वास उठने लग जाता है कि ब्रह्मचर्य का प्रादर्श कभी सम्भवनीय या युक्तिसंगत भी है या नहीं। वह कहने लग जाता है कि ब्रह्मचारी रहना असंभव है और मैंने अपने सामने एक गलत आदर्श रख छोड़ा है । फिर वह एकदम इतना शिथिल हो जाता कि अपने को पूरी तरह भोग-विलास के अधीन कर देता है। सारा ..
मा ___"यह तो उस योद्धा के समान हुआ, जो युद्ध में विजय-प्राप्त करने की इच्छा से अपने बाहु पर गुप्त शक्तिवाला ताबीज, बांध लेता है और आँखें मूंद कर विश्वास करता है कि वह ताबीज युद्ध-प्रहारों से या मौत से उसकी रक्षा करता है । पर ज्योंही उसे तलवार का एकाध वार लगा नहीं कि उसका सारा धैर्य और पौरुष भगा नहीं। हम अपूर्ण मनुष्य तो यही निश्चय कर सकते हैं कि हम अपनी बुद्धि और शक्ति के अनुसार, अपनी भूत और वर्तमान अवस्था तथा चारित्र्य का खयाल कर, अधिक से अधिक ब्रह्मचर्य का पालन करें।
, "दूसरे हम इस बात का भी खयाल न करें कि हम किसी काम को मनुष्यों की दृष्टि में ऊंचा उठने के लिए कर रहे हैं। हमारे न्यायकर्ता मनुष्य नहीं, हमारी अन्तरात्मा और परमेश्वर है। फिर हमारी प्रगति में कोई बाधक नहीं हो सकता। तब प्रलोभन हम पर कोई असर नहीं कर सकेंगे और प्रत्येक वस्तु हमें उस सर्वोच्च प्रादर्श की ओर बढ़ने में सहायक होगी । पशुता को छोड़ कर हम नारायण-पद की ओर बढ़ते
यहाँ इस विवेक की बात इसलिए रखी गयी है कि ब्रह्मचर्य या तो महाव्रत के रूप में ग्रहण किया जाता है अथवा अणुव्रत के रूप में। महाव्रत के रूप के त्याग सर्व व्यापक होते हैं और अणुव्रत के रूप के त्याग स्वदार-संतोष-परदार-त्याग रूप । इनमें किस मार्ग को ग्रहण करे, यह साधक के चुनाव का विषय है। चुनाव में विवेक प्रावश्यक है।
. Rais -ब्रह्मचर्य महावत के रूप में E
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समूचे जैन धर्म का उपदेश संक्षेप में कहना हो तो इस प्रकार रखा जा सकता है : “एक से विरति करो और एक में प्रवृत्ति । असंयम से निवृत्ति करो और संयम में प्रवृत्ति । क्रिया में रुचि करी और प्रक्रिया को छोड़ो' । हिंसा, भलीक, चोरी, अब्रह्म तथा भोगलिप्सा और लोभ
१-सूत्रकृताङ्ग १,३-३:१, २-स्त्री और पुरुष पृ० ३८-४१ से संक्षिप्त ३-उत्तराध्ययन ३१.२
एगओ विरई कुज्जा एगओ य पवत्तणं ।
असंजमे नियत्तिं च संजमे य पवत्तणं ॥ ४-वही १८.३३ :
किरियं च रोयई धीरे अकिरियं परिव्वजए। दिट्ठीए दिट्ठीसंपन्ने धम्म चरस दुच्चरं ।।
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