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भूमिका
इसमें प्रयोग पर सार्वभौम दृष्टि से विचार नहीं है।
(२) प्राचार्य कृपलानी ने महात्मा गांधी के ता० २४-२-४७ के पत्र' का उत्तर देते हुए ता. १-३-४७ के पत्र में उनके प्रति अत्यन्त श्रद्धा व्यक्त करते हुए लिखा:
"ऐसे प्रश्न मेरे बूते के बाहर हैं । दूसरों का न्याय करने बढ़े-खास कर उनका जो नैतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से मुझसे अनेक कोस दूरी पर है-उसके पहले अपने को नैतिक दृष्टि से सीधा रखने के लिए मुझे बहुत कुछ करना है । मैं तो इतना ही कह सकता हूं कि मुझे आपमें पूर्ण विश्वास है। कोई भी पापी मनुष्य आपकी तरह कार्य नहीं कर सकता। अगर कोई सन्देह होता भी तो मैं अपनी आँखों और कानों का ही अविश्वास करता । क्योंकि मैं मानता हूं कि मेरी इन्द्रियाँ मुझे अधिक धोखा दे सकती हैं, बनिस्बत प्राप, अत: मैं तो निश्चित हूं। कभी मैं सोचा करता हूं..."आप कहीं मनुष्यों का प्रयोग साध्य के रूप में न कर, साधन के रूप में तो नहीं कर रहे हैं । पर मैं यह विचार कर धैर्य ग्रहण कर लेता हूं कि आप अवश्य ही ऐसा ऊहापोह रखते होंगे। यदि आप स्वयं अपने विषय में निश्चित हैं, तो दूसरों को इससे हानि नहीं हो सकेगी। मुझे आश्चर्य हुमा कहीं पाप गीता के लोक-संग्रह का भंग तो नहीं कर रहे हैं। परन्तु इस प्रयोग में यह विचार भी आप की दृष्टि से अोझल नहीं होगा।"".""मैं जानता हूं स्त्रियों के प्रति प्रापकी जो भावना है, वही सही है। क्योंकि आप उनमें से हैं, जो स्त्री को साध्य मानते हैं केवल साधन नहीं। आपने कभी स्त्री-जाति से अनुचित लाभ नहीं उठाया।"
यह उत्तर श्रद्धा भावना से प्रेरित है और प्रकारान्तर से उसमें ग्रापत्तियाँ दिखा ही दी गयी हैं।
२–महात्मा गांधी ने ब्रह्मचर्य के क्षेत्र में इस प्रयोग के पीछे जो दृष्टियाँ बतलायी हैं, वे ऐसी नहीं जो सहज हृदयंगम हो सकें। मनु बहिन के मन की स्थिति के परीक्षण के लिए ऐसे प्रयोग की आवश्यकता नहीं थी। मनु बहिन जैसी सच्ची, निश्छल स्त्री अपने पितामह को अपने मनोभाव बिना प्रयोग के ही सही-सही कह देगी, ऐसा महात्मा गांधी को विश्वास होना चाहिए था। जो बात, बातचीत से जानी जा सकती थी, उसके लिए ऐसे प्रयोग की आवश्यकता नहीं थी। सम्पर्क में आनेवाली बहिनों के मनोभावों को जानने के लिए ऐसे प्रयोग की सार्वभौम प्रयोजनीयता सिद्ध नहीं होती, फिर भले ही ऐसा प्रयोग कोई ब्रह्मचारी ही करे।
३-योगसूत्र में यह अवश्य कहा है कि-"अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ पैरत्यागः"-अहिंसक के सान्निध्य में वैर नहीं टिकता, पर यहाँ सान्निध्य का अर्थ खूब सन्निकटता नहीं है । दूर या समीप, अहिंसक का ऐसा प्रभाव पड़ता है। ब्रह्मचारी के समीप भी विकार शान्ति को प्राप्त होते हैं, यह सत्य है, पर इसके लिए क्या एक शय्या के सान्निध्य की आवश्यकता होगी ? पतंजलि का सूत्र ऐसी बात नहीं कहता । ... ४–यह पौत्री मनु के शिक्षण की दिशा में जरूरी कदम किस दृष्टि से था, यह भी स्पष्ट नहीं है। ब्रह्मचर्य के क्षेत्र में किसी भी बहिन के शिक्षण के साथ इस प्रयोग का सीधा सम्बन्ध कसे बैठता है, यह समझ में नहीं पाता। नोग्राखाली जैसे भयंकर क्षेत्र में अपनी पौत्री के साथ स्थित हो, वहां की जनता में अदम्य साहस लाने और परिस्थिति का निर्भयता के साथ-साथ मुकाबिला करने का अनुपम प्रादर्श जरूर रखा गया था, पर बहिनों के सह-शय्या-शयन के साथ उसका सम्बन्ध नहीं बैठता। ..
५-नपुंसकत्व-प्राप्ति की साधना के लिए भी ऐसे प्रयोग की आवश्यकता नहीं। बिना ऐसे प्रयोग के नपुंसकत्व सिद्ध हुआ है, ऐसा इतिहास बतलाता है । कोई स्वयं ब्रह्मचर्य में कहाँ तक बढ़ा हुआ है, इस बात को जानने के लिए ऐसा प्रयोग उन्हीं आपत्तियों को सामने लाता है, जो प्राचार्य कृपलानी द्वारा प्रस्तुत हुई थीं।
६-मनु बहिन का एक आदर्श नारी के रूप में निर्माण करने की भावना के साथ भी सह-शय्या के प्रयोग का सीधा सम्बन्ध नहीं बैठाया जा सकता। इस प्रयोग के न करने से वह कैसे रुकता, यह बुद्धिगम्य नहीं होता।
'७-सह-शय्या-शयन नोपाखाली यज्ञ का सायुज्य अङ्ग कसे था, इस पर महात्मा गांधी का कथन स्पष्ट नहीं है।
१-इस पत्र में बात इस रूप में रखी हुई है-Manu Gandhi my grand-daughter, as we consider blood-rela
tion, shares the bed with me, strictly as my very blood as part of what might be called
my last yajna. २-Mahatma Gandhi The Last Phase pp. 582-3
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