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परिशिष्ट-क कथा और दृष्टान्त
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हुआ, परन्तु आप तो अनुपम चारित्र रत्न को है? आप जितनी घड़ी गलती करने जा रहे हैं,
कोशा ने गंभीर स्वर में उत्तर दिया “हे मुनि! इस रन कम्बल को गंदे नाले में फेंक देने से आपको इतना कष्ट गँवाकर अपनी आत्मा को नरक में फेंक रहे हैं, क्या इसका भी आपको फिक्र उतनी तो मैंने नहीं की । " .
येष्ठ व्रतमाचर्य व्रत का पालन करना पर्वत के भार को वहन करना है। उसे वहन करने में अत्यन्त उद्यमी मुनि भी युवती के संसर्ग से इक्ष्य और भाव दोनों प्रकार से यतित्व से भ्रष्ट हो जाते हैं।" "
..चाहे कोई कायोत्सर्गधारी हो, चाहे मौनी, पाहे कोई मुण्डित मस्तक वाला हो, चाहे कोई वल्कल के वस्त्र पहिनने वाला हो अथवा चाहे कोई अनेक प्रकार के तप करनेवाला हो - यदि वह मैथुन की प्रार्थना - कामना करनेवाला है, तो पाहे वह मझा ही क्यों न हो, वह मुझे प्रिय नहीं ।"
जो अकुलीन के संसर्ग रूप आपदा में पढ़ने पर भी, और स्त्री के आमंत्रित करने पर भी अकार्य कुकृत्य की ओर नहीं बढ़ता, उसी का पढ़ना, गुनना, जानना और आत्मस्वरूप का चिन्तन करना प्रमाण समझना चाहिए ।"" "वही पुरुष धन्य है, वही पुरुष साधु है, यही पुरुष नमस्कार के योग्य है जो अकार्य से निवृत्त है और असिधार सटरा खड्ग की धार पर चलने जैसे कठिन व्रत चतुर्थ व्रत का स्थूलभद्र मुनि की तरह धीरता पूर्वक पालन करता है।"" कोशा की इन सारगर्भित बातों को सुनकर मुनि की आंखें खुली। तुमुल अंधकार में आलोक हुआ। कोशा के प्रति मुनि का हृदय कृतज्ञता से भर आया । वह बोला :- "कोशा तू धन्य है । तूने मुझे भव- कूप से बचा लिया। अब मैं पाप से आत्मा को हटाता हूँ तुमसे में क्षमा चाहता हूँ ।".
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कोशा बोली - " मुनि! मैंने आपको संयम में स्थिर करने के लिए ही यह सब किया है। मैं आविका हूँ । दे मुनि ! अब आचार्य के पास शीघ्र जाकर अपने दुष्कृत्य का प्रायश्चित्त अंगीकार करें और भविष्य में गुणवा ईर्ष्या भाव न रखें।"
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मुनि आचार्य के पास लौटे। अवज्ञा के लिए क्षमा याचना की। अपने दुष्कृत्य को निन्दा करते हुए प्रायश्चित लेकर शुद्ध हुए।
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कोशा गणिका होकर भी उत्तम प्राविका निकली। वह ब्रह्मचर्य व्रत में हड़ रही और उसके बल से चलचित्त मुनि को भी उसने फिर से संयम में दृढ़ कर दिया।
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