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शील की नव बाड़ "हम तो भगवान् नेमिनाथ से भी बढ़कर योद्धा मुनि स्थूलिभद्र को मानते हैं। भगवान् नेमिनाथ ने तो गिरनार दुर्ग का आश्रय लेकर मोह को जीता; परन्तु, इन्द्रियों पर पूर्ण संयम रखनेवाले स्थूलिभद्र मुनि ने तो साक्षात् मोह के घर में प्रवेश कर उसको जीता।
- "पर्वत पर, गुफा में, वन में या इसी प्रकार अन्य किसी एकान्त स्थान में रहकर इन्द्रियों को वश में करने वाले हजारों हैं परन्तु अत्यन्त विलासपूर्ण भवन में, लावण्यवती युवती के समीप में रहकर, इन्द्रियों को वश में रखनेवाले तो शकडाल-नन्दन स्थूलिभद्र एक ही हुए।"
इस प्रकार स्तुति कर कोशा ने स्थूलिभद्र मुनि की सारी कथा रथिक को सुनायी। स्तुति-वचनों से रथिक को प्रतिबोध प्राप्त हुआ और स्थूलिभद्र के पास जा उसने मुनित्व धारण किया ।
वर्षा-ऋतु समाप्त होने पर चातुर्मास के लिए गये हुए साधु वापस लौटे। आचार्य संभूति ने प्रत्येक शिष्य का यथोचित शब्दों में अभिवादन किया और कठिन काम पूरा कर आने के लिए बधाई दी। बाद में स्थूलिभद्र भी आये। जब उन्होंने प्रवेश किया तो आचार्य उनके स्वागत के लिए खड़े हो गये और “कठिन से कठिन करनी-कार्य करनेवाले तथा 'महात्मा' आदि अत्यन्त प्रशंसासूचक सम्बोधनों से उनका अभिवादन किया। यह देखकर सिंह गुफावासी मुनि के चित्त में ईर्ष्या का संचार हुआ। वह विचारने लगा-'वेश्या के यहाँ षट् रस खाकर रहना इतना क्या कठिन है कि स्थूलिभद्र का ऐसा अनन्य सन्मान ?"
- देखते-देखते दूसरा चातुर्मास आगया। जिस साधु ने गत चातुर्मास के अवसर पर सिंह की गुफा के सामने तपस्या करने का नियम लिया था, उसने कोशा के यहां चातुर्मास करने की इच्छा प्रगट की। आचार्य वास्तविक कठिनाई को समझते थे, इसलिए उन्होंने अपनी ओर से अनुमति नहीं दी। परन्तु, शिष्य के अत्यन्त आग्रह को देखकर, शेष तक सुफल की आशा से, बाधा भी न दी। मुनि विहार कर ग्रामानुग्राम विचरते हुए पाटलिपुत्र नगर में पहुंचे एवं कोशा से यथा नियम आज्ञा प्राप्त कर उसकी चित्रशाला में ठहरें।
मुनि अपने को सम्पूर्ण जितेन्द्रिय समझता था। अपने मनोबल पर उसे आवश्यकता से अधिक भरोसा था। वह अपने को अजेय समझता था। परन्तु कोशा के स्वाभाविक शरीर-सौंदर्य को देखकर वह पहली ही रात्रि में विषयविह्वल हो गया और कोशा से विषय-भोग की प्रार्थना करने लगा।
प्रतिबोध प्राप्त श्राविका ने क्षण भर में ही अपना कर्तव्य निश्चित कर लिया। उसने कहा-“यदि मुझे नेपाल के राजा के यहां से रत्न-कम्बल लाकर दे सकें, तो मैं आपको अवश्य अंगीकार कर सकती हूँ।"
विषय वासना में साधु अत्यन्त आसक्त हो रहा था। उसे चातुर्मास तक का ध्यान न रहा। वह उसी समय विहार कर अनेक कठिनाइयों को झेलता हुआ नेपाल पहुंचा और बहुत कष्ट से रत्न-कम्बल प्राप्त कर कोशा के पास लौटा। मुनि ने बड़ी व्यग्रता और प्रेम के साथ कम्बल कोशा को भेंट की।
कोशा ने बड़े प्रेम और हर्ष के साथ उसे ग्रहण किया। मुनि के हिम्मत की बड़ी प्रशंसा की और रत्न कम्बल को बहुत सराहनीय बताया। ऐसा करने के बाद कोशा ने मुनि को देखते-देखते ही उस कम्बल से अपने पैर पोंछकर उसी समय उसे गन्दे नाले में फेंक दिया।
- यह सब देखकर मुनि को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह बोला-इतनी मिहनत से प्राप्त कर लाई हुई इस बहुमूल्य रन कम्बल से पैर पोंछकर नाले में फेंकते हुए क्या तुम्हें जरा भी विचार नहीं.आया:?"
Sam
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