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शील की नव बाद
के निम्न विचारों से
दश व्रतों का पालन है।
महात्मा गांधी और स्वामीजी के विचारों में जो साम्य है, वह स्वयं प्रकट है।
स्वामीजा न किसी भी एक महावत को दूसरे महावतों के लिए कवच स्वरूप बताया है। यह भाव महात्मा गान्धी के निम्न समर्थित है :
"ब्रह्मचर्य एकादश व्रतों में से एक व्रत है। इस पर से कहा जा सकता है कि ब्रह्मचर्य की मर्यादा या बाड़ एकादश व्रतों का पालन मगर एकादश व्रतों को कोई बाड़ न माने । बाढ तो किसी खास हालत के लिए होती है। हालत बदली और बाड़ भी गई। मगर एका का पालन तो ब्रह्मचर्य का जरूरी हिस्सा है। उसके बिना ब्रह्मचर्य पालन नहीं हो सकता।"
६-ब्रह्मचर्य और स्त्री-पुरुष का अभेद , तथागत बुद्ध के जीवन की एक घटना इस प्रकार मिलती है। एक बार वे शाक्यों के कपिलवस्तु के न्यग्रोधाराम में विहार कर है। तब महाप्रजापति गौतमी वहाँ पाई और वन्दना कर एक ओर खड़ी हो बोली : "भन्ते ! अच्छा हो स्त्रियाँ भी तथागत के धर्म-विनय में प्रयास पावें।" बुद्ध बोले : “गौतमी ! तुम्हें ऐसा न रुचे।" गौतमी ने दूसरी-तीसरी बार भी निवेदन किया पर तथागत ने वही उत्तर दिया गौतमी दुःखी, अश्रुमुखी हो भगवान को अभिवादन कर चली गई। इसके बाद तथागत वैशाली को चल दिये । वहाँ महावन की कूटागारशाला में ठहरे। महाप्रजापति गौतमी केशों को कटा, कपायवस्त्र पहिन बहुत-सी शाक्य-स्त्रियों के साथ कूटागारशाला में पहची। वहाँ द्वारकोष्ठक के बाहर खड़ी हुई। उसके पर फुले हुए थे। शरीर धल से भरा था। वह दुःखी, अश्रुमुखी, रोती हुई खड़ी थी। उसे देख आयुष्मान् प्रानन्द ने पूछा-"गौतमी ! तू ऐसे क्यों खड़ी है ?" वह बोली : "भन्ते आनन्द ! तथागत धर्म-विनय में स्त्रियों की प्रव्रज्या की अनुज्ञा नहीं देते।" "गौतमी ! तू यहीं रह । मैं भगवान से प्रार्थना करता हूँ।" आनन्द तथागत को अभिवादन कर एक ओर बैठ बोले : “भन्ते ! अच्छा हो स्त्रियों को प्रव्रज्या मिले।'' "नहीं प्रानन्द ! ऐसा न रुचे।" प्रानन्द बोले : "भन्ते ! क्या स्त्रियाँ प्रवजित हो स्रोत-आपत्तिफल, सकृदागामिफल, अनागामिफल, अर्हत्त्वफल को साक्षात् कर सकती हैं ?" "साक्षात् कर सकती हैं प्रानन्द !" "भन्ते ! यदि स्त्रियाँ इस योग्य हैं तो अभिभाविका, पोषिका, क्षीरदायिका, भगवान की मौसी महाप्रजापति गौतमी बहुत उपकार करनेवाली है। उसने जननी के मरने पर भगवान को दूध पिलाया। भन्ते ! अच्छा हो स्त्रियों को प्रव्रज्या मिले।" गौतमी ने तथागत के उसी समय स्थापित आठ गुरु-धर्मों को स्वीकार किय उसकी उपसम्पदा--प्रव्रज्या हुई।
प्रव्रज्याके बाद बुद्ध प्रानन्द से बोले : "प्रानन्द ! यदि तथागत-प्रवेदित धर्म-विनय में स्त्रियाँ प्रव्रज्या न पातीं तो यह ब्रह्मचर्य चिरस्थायी होता, सद्धर्म सहस्र वर्ष तक ठहरता । अब ब्रह्मचर्य चिर-स्थायी न होगा, सद्धर्म पाँच ही सौ वर्ष ठहरेगा। आनन्द ! जैसे बहुत स्त्रीवाले मौर थोड़े पुरुषोंवाले कुल, चोरों द्वारा, भंडियाहों द्वारा प्रासानी से ध्वंसनीय होते हैं, उसी प्रकार जिस धर्म-विनय में स्त्रियाँ प्रव्रज्या पाती हैं, वह ब्रह्मचर्य चिर-स्थायी नहीं होता। जैसे आनन्द ! सम्पन्न लहलहाते धान के खेत में सेतट्टिका नामक रोग की जाति पलती है. जिससे वह शालि-क्षेत्र चिरस्थायी नहीं होता, जैसे सम्पन्न ऊख के खेत में मजेिष्ठिका नामक रोग-जाति पलती है. जिससे वह ऊख का खेत चिरस्थायी नहीं होता, ऐसे ही आनन्द ! जिस धर्म-विनय में स्त्रियाँ प्रव्रज्या पाती हैं, वह ब्रह्मचर्य चिर-स्थायी नहीं होता।"
इस घटना से प्रकट है कि बौद्ध धर्म के प्रवर्तक तथागत बुद्ध स्वयं ही नारी के कर्तृत्व के प्रति शंकाशील थे। इसी कारण नारी की प्रव्रज्या । का पठन सामने आने पर वे पेशोपेश में पड़ गये । यह शंका नारी के ब्रह्मचर्य पालन की क्षमता के विषय में थी। वे नारी की प्राजीवन ब्रह्मचय पोजक गले नहीं उतार सके। जैन धर्म के साहित्य में ऐसी शंका या भ्रान्ति कहीं भी परिलक्षित नहीं होती। जन धन नारी के प्रति ब्रह्मचर्य पालन के विषय में वैसी ही अशंकाशील भावना देखी जाती है जैसी कि पुरुष के प्रति । स्त्री में भी आजीवन ब्रह्मचय 'पालन की आत्मिक शक्ति और सामर्थ्य होने में उतना ही विश्वास देखा जाता है जितना कि पुरुष में इनके होने के प्रति।
वैदिक परम्परा में नारी को सहधर्मिणी कहा गया है। पुरुष नारी को अपने साथ बैठाये बिना धार्मिक अनष्ठान अथवा क्रिया-कलाप को परा नहीं कर सकता-ऐसी भावना है। इस तरह वैदिक परम्परा न
कोसी भावना है। इस तरह वैदिक परम्परा नारी को अपूर्व सम्मान प्रदान करती है परन्तु वहाँ नारा पुरुष १-ब्रह्मचर्य (दूसरा भाग) पृ०५४ २-विनय पिटक : चुल्लवग्ग : भिक्षुणी-स्कंधक 5 ११२ पृ०५०६-२१
वहा नारी पुरुष की पर
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