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६२.
१- प्रमचारी इम सांभली रे लाल, सील विभूषा मत करजे लिगार | ० || ज्यू सील रतन कुसलें रहें रे लाल, तिण सूं उतरें भव जल पार
त्रि० ए० ॥
टिप्पणियाँ
[१] दोहा १-३ :
किसे कहते हैं. इसका उत्तर दूसरे
प्रथम देहे में स्वामीजी ने ब्रह्मचर्य की नवीं वाड़ का स्वरूप बतलाया है। शरीर की विनूपा न करना यह नवीं बाड़ है। 'शरीर-विभूषा' दोहे में है शरोर-विमूपा अर्थात् तन-वृङ्गार अथवा तड़क-भड़क से रहना शरीर-विभूपा का दुष्परिणाम तीसरे दोहे में बताया गया है। जो शरीर विभूषा करता है— अर्थात् इस बाढ़ का लोप करता है वह शीघ्र ही संयोगी भोगी हो जाता है। इसलिए कहा है कि ब्रह्मचारी किसी भी तरह का तन-शृङ्गार न करे ।
इस व्रत की परिभाषा का आधार आगम के निम्न वाक्य हैं :
-निर्ग्रथ विभूपानुपाती न हो।
[२] ढाल गा० १-५ :
शोल की नब बाड़
६ - हे ब्रह्मचारी ! यह सब सुनकर जरा भी शरीर की विभूषा मत करो जिससे तुम्हारा शीलरूपी रत्न सुरक्षित रहे और तुम जन्म-मरण रूपी भव-जाल से पार उतरो ।
विभूसं परिवज्जेजा, सरीरपरिमण्ड चम्मचेररओ भिक्स, सिंगारत्थं न धारए ॥
- उत्त० १६ : श्लो० ९
- ब्रह्मचारी विभूपा - शरीर परिमंडन- बनाव उनाव को छोड़ दे। वह मृङ्गार- शोमा के लिए कोई वस्तु धारण न करे।
होते हैं।
[३] ढाल गा० ६
नोनिग्गन्थे विभूसाणुवादी हविज्जा
:
इन गाथाओं में स्वामीजी ने आगम के निम्नलिखित स्थलों का विस्तार किया है :
सिणाणं अदुवा कक्के लो पउमगाणि अ गाय सुव्वट्टणट्ठाए, नायरंति कयाइ वि ॥ नगिणस्स वा वि मुंडस्स, दीहरोमनहंसिणो । मेहुणा उवसंतस्स, किं विभूसाए कारियं ॥ तम्हा ते न सिणायंति सीएण उसिणेण वा । जावज्जीवं वयं घोरं, असिणाणमहिद्वगा ||
- दस० ६
६४-६५-६३
- ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ गात्र उर्तन के लिए स्नान, कल्प-चन्दनादि द्रव्य, लोभ, कुंकुम आदि का कदापि प्रयोग नहीं करता। -नग्न, मुण्ड, दीर्घरोग और नखवाले तथा मैथुन से उपशांत - सम्पूर्णतः विरत अनगार को विभूषा से क्या मतलब ?
-ब्रह्मचारी निर्ग्रन्थ शीत अथवा उष्ण किसी भी जल से स्नान नहीं करते। वे यावज्जीवन के लिए इस घोर अस्नान व्रत को धारण करनेवाले
इस गाथा का आधार आगम के निम्नलिखित स्थल हैं:
उत्त० १६९
क
विभूसावत्ति भिक्खू, कम्मं बंधइ चिक्कणं । संसारसायरे घोरे, जेर्ण पडइ दुरुतरे ॥ विभूसावत्तिअ चैनं बुद्धा मन्नति तारिस | सावज्जवल चै नेयं ताहि सेवि ॥
-६० ६ ६६-६७
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