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शील की नव बार
"यह मादत दूसरों के लिए उदाहरण बन गयी तो.।" महात्मा गांधी ने लोक-संग्रह की दृष्टि से उसका तात्कालिक त्याग किया।
महात्मा गांधी ने नोपाखाली के यज्ञ के समय एक प्रयोग प्रारंभ किया। वे रिस्ते में अपनी पौत्री और धर्मपुत्री मनु वहन को शाम
से अपनी शय्या में सुलाते। ...
साने, जिन्होंने उनकी अनुपस्थिति महा
"इस बात के लिए मुझे अपने प्रिय
- इससे बड़ी हलचल मची। उनके दो साथियों ने, जिन्होंने उनकी अनुपस्थिति में हरिजन के सम्पादन-कार्ग का जिम्मा अपन पर लिया था, इसके प्रतिवाद मौर मसहयोग के रूप में इश्तिफा दे दिया। महात्माजी ने मा० कृपलानी को लिखा-"इस बात के लिए मुझे अपने प्रिय साथियों का मूल्य चुकाना पड़ा है।" ..
प्राचार्य कृपलानी ने महात्मा गांधी के प्रति पूर्ण श्रद्धा व्यक्त करते हुए उत्तर में दो मुर्द रखे---कभी मैं सोचता हूं-कहीं आप मनयों का उपयोग साध्य के बतौर न कर साधन के बतौर तो नहीं करते।..."मुझे पाश्चर्य हुमा-कहीं प्राप गीता के लोक-संग्रह के सिद्धान्त को तो भङ्ग नहीं कर रहे हैं५.....?"
मित्रों ने तर्क किया-"आप महात्मा हैं, पर दूसरे पक्ष के बारे में क्या कहा जाय।"
महात्मा गान्धी ने एक दिन के प्रवचन में कहा-"मैं जानता हूं कि मुझको लेकर कानाफूसी और गुपशुप चल रही है। मै इतने सन्दे पौर अविश्वास के बीच में हं कि अपने अत्यन्त निर्दोष कार्यों के बारे में कोई गल्तफहमी और उल्टा प्रचार होने देना नहीं चाहता।" • दूसरे दिन के भाषण में उन्होंने चेतावनी दी-"मैंने अपने प्रतरङ्ग जीवन के बारे में कहा है वह अन्धानुकरण के लिए नहीं है। मैं जो चाहता हूं वह सब कर सकते हैं, वशतें वे उन शर्तों को पालें जिनका मैं पालन करता हूं। अगर ऐसा नहीं करते हुए मेरी बात का अनुसरण करने का बहाना करेंगे तो वे ठोकर खाये बिना नहीं रहेंगे।"
ठक्कर बप्पा का भी प्रश्न रहा–'यदि आपके उदाहरण का अनुसरण किया गया तो ?" यह बात अनेकों के अन्त तक गले नहीं उतरी।
इन थोड़ी-सी घटनाओं से प्रकट हो जाता है कि समाधि-स्थानों की उपेक्षा से कैसे धर्म-संकट उपस्थित हो जाते हैं। बाहर में कैसा शंका-शील वातावरण बन जाता है । और किस तरह की बुरी धारणायें महात्मा ही नहीं पर महासती के विषय में भी प्रचारित हो जाती हैं। ___ इस तरह ब्रह्मचर्य के समाधि-स्थान अथवा बाड़ों की नींव कमजोर नहीं है । उनका आधार गहरा अनुभव और मानव-स्वभाव का गंभीर विश्लेषण है। यह सत्य है कि ब्रह्मचारी वह है जो किसी भी परिस्थिति में भी विचलित न हो । पर यह भी सत्य है कि बाड़ों की अपेक्षा करने से जो स्थिति बनती है उसका भी निवारण नहीं हो सकता। कदाश परिणाम अडिग न रहने पायें तो 'हुवें वरत पिण फोक' । यदि यह न भी हो तो भी शंका में लोक', 'पा प्रछतो पाल सिर', को कौन रोक सकता है ? यह भी निश्चित है कि जो बाड़ों को नहीं लोपता उसका व्रत अभङ्ग रहता है क्योंकि बाड़ें केवल शारीरिक ही नहीं मानसिक शुद्धता पर भी जोर देती हैं। इसीलिए स्वामीजी ने कहा है
... "बाड़ न लोपें तेहन रहें वरत अभंग ।
ते वेरागी विरकत थका, ते दिन दिन चढते रंग ॥" इस तरह यह स्पष्ट है कि बाड़ों के पालन से संसर्ग और संस्पर्श के अवसर ही नहीं आ पाते। मन विकार-प्रस्त होने से बच जाता है। अपनी सुरक्षा होती है। अपने द्वारा दूसरे का पतन नहीं हो पाता । अपने कारण किसी के प्रति शङ्का का वातावरण नहीं बनता। लोक-व्यवहार अथवा सभ्यता को धक्का नहीं पहुंचता। दूसरों का अन्धानुकरण करने का बल नहीं मिलता। ब्रह्मचर्य का सुगमतापूर्वक पालन होता है। ..
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...१–ब्रह्मचर्य (प. भा.) पृ०६७ २-यापू की छाया में पृ० २०२
_Mahatma GandhiThe Last Phase p. 598 ४-वही पृ० ५८१ . ५–वही पृ० ५८२ ६-वही पृ०५८३
-वही पृ० ५८० ८-वही पृ०५८१ ६ वही पृ० ५८६
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